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________________ ४८ : व्यापारी सत्यनिष्ठ एवं प्रमाणिक बनें अर्थ जीवन-साध्य नहीं है मैं देख रहा हूं, आज लोगों में अधिक-से-अधिक अर्थ-संग्रह की प्रवृत्ति तेजी से बढ़ रही है। इसके लिए भ्रष्ट-से-भ्रष्ट तरीका अपनाने में भी उन्हें कोई संकोच और परहेज नहीं है। ऐसा क्यों ? इसकी कारणमीमांसा में जाएं तो पहली बात तो यह है कि आज अर्थ को अतिरिक्त मूल्य मिल गया है। यों मैं मानता हूं कि गृहस्थ-जीवन अर्थ के साथ जुड़ा हुआ है। एक सीमा तक उसकी आवश्यकता को यथार्थवादी दृष्टिकोण रखनेवाला कोई भी व्यक्ति नकार नहीं सकता। उसे नकारने का मतलब है-एक यथार्थ की अनदेखी करना, एक सत्य को झुठलाना। बावजूद इसके, इतना बहुत स्पष्ट है कि वह मनुष्य-जीवन का साध्य नहीं है, परम लक्ष्य नहीं है। उसकी आवश्यकता इसी सीमा तक है कि वह जीवनयापन का साधन है। जीवन की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति उसके माध्यम से होती है, किंतु आज तो लोगों ने उसे साधन के स्थान से उठाकर साध्य की भूमिका में प्रतिष्ठित कर दिया है। मेरी दृष्टि में यह प्रतिष्ठापन बहुत ही अनुचित है। अर्थ के इस अतिरिक्त मूल्य एवं अस्थानीय प्रतिष्ठापन ने अधिक-से-अधिक अर्थ-संग्रह, भ्रष्टाचार, शोषण-जैसी अनेक अवांछनीय प्रवृत्तियों को बढ़ावा और जन्म दिया है। प्रदर्शन और पोजीशन की बीमारी अर्थ-संग्रह का एक अन्य बड़ा कारण दिखावा तथा पोजीशन बनाए रखने की तुच्छ मनोवृत्ति है। यह अमूमन देखने में आता है कि व्यक्ति प्रदर्शन एवं पोजीशन के लिए अपनी आर्थिक शक्ति और सामर्थ्य से बाहर जाकर भी खर्च करता है, फिजूलखर्ची करता है। इस कारण समाज में गलत प्रतिस्पर्धा पैदा होती है और इसकी विशाल परिधि में तरह-तरह की बुराइयों को फलने-फूलने का मौका मिलता है। व्यक्ति भ्रष्टाचार, - ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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