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कर्म-बंधन और फल-भोग
कर्मों के पुद्गल बहुत सूक्ष्म होते हैं, इसलिए उन्हें देखा जाना संभव नहीं है। बावजूद इसके, उनसे संसारी आत्मा प्रभावित होती रहती है। शरीर, वचन और मन तीनों ही स्तरों पर प्राणी जितनी प्रवृत्तियां करता है, उनसे कर्म आकर्षित होते हैं और वे प्राणी की आत्मा पर जम जाते हैं। इसे कर्म का बंध कहा जाता है। कैसी बात है कि कर्मों के बंध के साथ ही आत्मा पर जमे रहने की उनकी अवधि और उनके विसर्जन-काल का निर्धारण हो जाता है! काल-परिपाक के साथ जब वे कर्म उदय में आते हैं, तब अपनी प्रकृति के अनुरूप शुभ और अशुभ परिणाम देते हैं, पर इस संदर्भ में एक बात बहुत गहराई से समझ लेने की है। बंधे हुए सभी कर्म भोगने ही पड़ें, ऐसी बात नहीं है। तपस्या और साधना के द्वारा बहुत-से कर्म उनके उदय-काल या विसर्जन-काल से पूर्व भी समाप्त किए जा सकते हैं। कुछ-एक कर्म तो ऐसे होते हैं, जिनकी आलोचना कर लेने और भविष्य में उनके बंधन की हेतुभूत प्रवृत्ति न दोहराने की सजगता से ही वे विलग हो जाते हैं। कुछ-एक कर्मों से छुटकारा पाने के लिए प्रायश्चित्त स्वीकार करना होता है। हां, कुछ-एक कर्म ऐसे होते हैं, जिन्हें भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता। व्यक्ति का पुरुषार्थ, तपस्या-साधना उन्हें तोड़ने में सक्षम नहीं होती। ऐसे कर्मों को निकाचितकर्म की संज्ञा दी गई है। पर ऐसे कर्म आनुपातिक दृष्टि से बहुत ही कम होते हैं। नाम मात्र होते हैं। प्रायः कर्मों से तो व्यक्ति अपने प्रबल पुरुषार्थ यानी तपस्या-साधना के सहारे उनके उदय रूप में परिणाम देने से पहले ही छूट सकता है। इसलिए ऐसा कहना एकांततः उचित नहीं है कि एक बार जो कर्म-बंधन हो गया, उसका फल भोगे बिना छुटकारा नहीं। आसक्ति और बंधन
__ किसी कर्म-बंधन का हलका, प्रगाढ़ या निकाचित होना इस बात पर निर्भर करता है कि उस बंधन की हेतुभूत प्रवृत्ति के साथ व्यक्ति की आसक्ति कितनी जुड़ी हुई है। यह कैसी बात है कि व्यक्ति स्वयं कर्मों का बंधन करता है और जब वे उदय रूप में आकर अपना कटक फल देते हैं, तब वह आंसू बहाता है! बहुत बार तो वह निष्प्रयोजन या बिना किसी खास प्रयोजन के प्रगाढ़ बंधन कर लेता है। हंसी-मजाक में कभीकभी व्यक्ति ऐसा अशुभ बंधन कर लेता है कि जिसका भयंकर कटुक
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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