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संस्कृति के दो विभाग
प्रकृति की दृष्टि से संसार की सारी संस्कृतियों को दो भागों में बांटा जा सकता है-त्यागमूलक संस्कृति और भोगमूलक संस्कृति। दूसरे शब्दों में अच्छी संस्कृति और बुरी संस्कृति। भारतीय संस्कृति त्यागमूलक संस्कृति है। यही तो कारण है कि यहां महत्ता धन और धनकुबेरों की नहीं, अपितु अकिंचन फकीरों की है। बड़े-बड़े अर्थपति एवं सत्ताधीश त्यागी संतों के चरणों में मस्तक झुकाकर धन्यता की अनुभूति करते हैं। हालांकि आज इसमें कुछ विकृति प्रविष्ट कर गई है। अणुव्रत-आंदोलन का लक्ष्य इसे दूर करना है। वह जन-जन को भोग से त्याग और संयम की ओर मुड़ने का आह्वान करता है, मानवता के विकास और जीवन की शुद्धि का रचनात्मक कार्यक्रम प्रस्तुत करता है। भारतीय संस्कृति की विलक्षणता
भारतवर्ष सदियों की दासता के बाद आज स्वतंत्र है। बावजूद इसके, अब भी राष्ट्र की वैसी स्थिति नहीं है कि जिसे देखकर यह अनुमान किया जा सके कि यह भारतवर्ष अतीत में कभी सारे संसार का गुरु था, आध्यात्मिक पथ-दर्शक था, पर भारतीय संस्कृति में कैसी विलक्षणता है कि इसके बावजूद त्रस्त विश्व की आंखें शांति, सुरक्षा एवं पथ-दर्शन के लिए भारत की ओर लगी हैं। यह इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि भारतीय संस्कृति में अवश्य कोई एक अदृश्य अद्भुत शक्ति है, जो विश्व को अपनी ओर आकृष्ट करती है। वह शक्ति है-अहिंसा की शक्ति। अपनी अहिंसामूलक संस्कृति के प्रभाव के कारण भारत ने संहारक, विध्वंसात्मक शक्ति का विकास नहीं किया। इसने विकास किया मैत्री का, सह-अस्तित्व का। भाषांतर से कहूं तो यह शक्ति त्याग एवं संयममूलक संस्कृति की है। सभ्यता और संस्कृति
बहुत-से लोग नृत्य,संगीत, वाद्य आदि के कार्यक्रमों को संस्कृति और सांस्कृतिक कार्यक्रम मानते हैं। मेरी दृष्टि में ऐसा मानना गलत है। इसी प्रकार बाह्य रीति-रिवाजों को संस्कृति मानना भी उचित नहीं है। फिर इन रीति-रिवाजों के नाम पर होनेवाले नर-संहार आदि का तो संस्कृति से कोई दूर-दराज का भी संबंध नहीं है। बड़े आश्चर्य की बात तो यह है कि आज के बुद्धिवादी लोग भी इस विचार प्रवाह में बह रहे हैं। इस प्रकार की मान्यता और समझ रखनेवाले लोगों को अपनी
सभ्यता और संस्कृति
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