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४५ : गुरु कैसा हो
गुरु क्यों
श्रेय और प्रेय की विवेचना, विवेक-जागरण और बोधि-प्राप्ति के लिए सर्वसाधारण लोगों के लिए गुरु का होना नितांत आवश्यक है। गुरु की आवश्यकता आप्तपुरुष, तीर्थंकर या अवतारीपुरुष को नहीं होती, क्योंकि वे स्वयंबुद्ध और हंसविवेकयुक्त होते हैं, पर ऐसे व्यक्ति तो विरले ही होते हैं। गुरु की अर्हता
गुरु कैसा हो? जो पूर्ण रूप से अहिंसक, सत्यवादी, अपरिग्रही और ब्रह्मचर्य को धारण करनेवाला होता है, वही गुरु बनने का सच्चा अधिकारी होता है। गुरु बननेवाले के लिए अपेक्षित है कि वह स्वयं निःस्पृह, निष्पाप, संयमी और पारगामी हो तथा दूसरों को भी उस पथ पर अग्रसर करने में सक्षम हो। गीता में भी गुरु की अर्हताओं का उल्लेख प्राप्त है। वहां कहा गया है कि जो दुःखों में उद्विग्न न हो, कष्टों को आशीर्वाद और जीवन की कसौटी समझकर स्वीकार करे, जिसकी सुखों के प्रति आसक्ति न हो तथा जिसमें राग, भय, द्वेष और क्रोध न हो, वही गुरु होने के योग्य है। गुरु दीपक के समान होता है, जो कि अंधेरे में प्रकाश प्रदान करता है, पर प्रकाश वही दीपक दे सकता है, जो स्वयं उद्भासित हो। एक बुझा हुआ दीपक, दीपक नामधारी होने पर भी प्रकाश प्रदान नहीं कर सकता। अतः जिस-किसी को गुरु बना लेने की पद्धति उचित नहीं है। यह तो नौका के अभाव में पत्थर पर बैठकर समुद्र पार करने के प्रयास के समान है, जिसका कि परिणाम आप से अज्ञात नहीं है। सार-संक्षेप यह है कि सद्गुरु के अभाव में कुगुरु को स्वीकार करने की अपेक्षा निगुरा रह जाना ही श्रेयस्कर है। • १०८ -
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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