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४४ : श्रेय का संग्रहण करें
भगवान महावीर ने कहा-जं छेयं तं समायरे। इसका अर्थ है-जो श्रेय है, उसका आचरण करना चाहिए। आप पूछेगे कि श्रेय क्या है। हमारे सामने दो ध्रुव हैं। पहला ध्रुव है-प्रेय और दूसरा ध्रुव है-श्रेय। श्रेय को समझने के लिए प्रेय को समझना भी आवश्यक है। प्रेय वह होता है, जो वर्तमान में बहुत प्रिय, रुचिकर एवं आकर्षक लगता है, पर उसका परिणाम भविष्य में अत्यंत अप्रिय, अरुचिकर, अनाकर्षक एवं कटु होता है। इससे ठीक विपरीत स्थिति है श्रेय की। वह वर्तमान के क्षणों में तो प्रिय, रोचक, चित्ताकर्षक एवं सुंदर प्रतीत नहीं होता, परंतु भविष्य में उसका जो परिणाम आता है, वह अतीव प्रियकर, रुचिकर, आकर्षक एवं सुंदर होता है। प्रेय और श्रेय का यह विवेचन प्रकारांतर से श्रीकृष्ण ने भी भगवद्गीता में किया है। वहां प्रेय एवं श्रेय के स्थान पर 'सत्त्व', 'रजस्' और 'तमस्'-ये तीन भेद किए गए हैं। सात्त्विक वृत्ति श्रेय का प्रतीक है। वह वर्तमान में जहर और खड्ग की धार के समान प्रतीत होती है, परंतु अनागत में उसका जो परिणाम आता है, यह अमृतवत सुखद, तृप्तिकर एवं कल्याणकारी होता है। ऋषि-महर्षि, साधु-संत इसी पथ के पथिक होते हैं। दूसरी वृत्ति है-राजसिक। इस वृत्ति में इंद्रियजनित सुख और विलास प्राप्त होता है, पर यह सुख और विलास वास्तविक नहीं, अवास्तविक होता है। यह एक ऐसी दुर्गम घाटी है, जिसे विरले व्यक्ति ही पार सकते हैं। क्यों? यह इसलिए कि इस घाटी में रूप, सौंदर्य, वासना तथा इंद्रियजनित क्षणिक सुखों का आकर्षण और मोह रहता है। तीसरी वृत्ति तामसिक तो बहुत ही निकृष्ट है। उसका तो न प्रारंभ सुखद है और न परिणाम ही। इस वृत्तिवाला व्यक्ति निद्रा, प्रमाद, आलस्य, विकथा आदि में ही सुख मान लेता है।
प्रेय और श्रेय के इस भेद का ज्ञान हर व्यक्ति को करना चाहिए। जो व्यक्ति यह ज्ञान नहीं करता, उसका दूसरा-दूसरा विपुल ज्ञान भी एक
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- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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