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सुनना, जिज्ञासा करना, चिंतन करना, ज्ञानार्जन करना, तपस्या करना, भक्ति करना, उपासना करना आदि-आदि सभी प्रवृत्तियां कर्म के अंतर्गत हैं। मेरी दृष्टि में वही कर्म जीवन-विकास का साधन है, मोक्षाराधना में हेतुभूत है, जो राग-द्वेष से सर्वथा अछूता हो, आत्मशुद्धि के लक्ष्य से जुड़ा हो। यदि वह राग-द्वेषयुक्त है, आत्मशुद्धि के लक्ष्य से रहित है तो जीवन-विकास के स्थान पर जीवन-हास का हेतु बन जाता है।
__इस संदर्भ में सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इन तीनों तत्त्वों में से अकेला कोई मुक्ति का मार्ग नहीं बन सकता। मुक्ति का मार्ग इन तीनों का समन्वित रूप है। इसलिए मुमुक्षु हर प्राणी के लिए यह नितांत अपेक्षित है कि वह इन तीनों ही तत्त्वों की युगपत सम्यक आराधना करे।
कलकत्ता १२ मार्च १९५९
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मुक्ति का मार्ग
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