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________________ ३८ : मुक्ति का मार्ग विभिन्नरुचयो लोकः के अनुसार लोगों की भिन्न-भिन्न रुचियां होती हैं, भिन्न-भिन्न आकर्षण होते हैं। धर्म के क्षेत्र में भी तो यही बात है। कुछ लोग भक्ति को महत्त्व देते हैं, कुछ ज्ञान को और कुछ कर्म को। भक्ति में विश्वास करनेवाले उसी को एकमात्र मुक्ति का साधन मानते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें सभी चीजें निरर्थक प्रतीत होती हैं। ज्ञानवादी ज्ञान को ही सब-कुछ मानते हैं तो कर्मवादी कर्म को। इस संदर्भ में मेरी दृष्टि यह है कि एकांगी चिंतन और पकड़ अच्छी बात नहीं है। भक्ति का धर्म-साधना के क्षेत्र में अपना एक स्थान और मूल्य है, पर उसे ही सब-कुछ मानना उचित नहीं। फिर जो भक्ति अंध श्रद्धाजन्य विह्वलता लिए होती है, उसे भी उपादेय नहीं माना जा सकता। ऐसी भक्ति में प्रायः व्यक्ति अपने विवेक का त्याग कर उन्मत्तसा बन जाता है। मैं उस भक्ति को महत्त्व देता हूं, जिसके साथ स्थिरता, गंभीरता, चिंतन और मनन जुड़ा हो तथा जो व्यक्ति के लिए आत्म-शुद्धि एवं पवित्र जीवन जीने की प्रेरणा बनती हो। ज्ञान के संदर्भ में भी अवधारणा सम्यक हो, यह बहुत जरूरी है। ज्ञान का गुण जानना है, किंतु जानने के बाद यदि हेय का त्याग नहीं, उपादेय का स्वीकरण नहीं, सत्य की दिशा में चरणन्यास नहीं तो उस जानने की क्या सार्थकता? इसी प्रकार जो जानना व्यक्ति को गर्वोन्मत्त बनाए, उसके अहंकार को सिंचन और पोषण दे, वह भी किस काम का ? ज्ञान के साथ व्यक्ति की आस्था सम्यक हो, दृष्टिकोण यथार्थवादी हो यह नितांत अपेक्षित है। इसी क्रम में वह ऋजुता से पुष्ट हो तथा सत की ओर गतिशील हो, यह भी आवश्यक है। ऐसे ज्ञान की ही सार्थकता प्रकट होती है। तीसरा तत्त्व है-कर्म। कर्म का क्षेत्र बहुत विस्तृत है। बोलना, .९४ ज्योति जले : मुक्ति मिले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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