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गृहत्यागी साधु-साध्वियों के लिए है। इसमें अहिंसा आदि पांच महाव्रतों की बिना किसी अपवाद के अखंड रूप में पालना करने का विधान है, किंतु इस प्रकार की साधना करने का सामर्थ्य सबमें नहीं हो सकता। कुछ-एक विशिष्ट सामर्थ्यवान व्यक्ति ही यह साधना स्वीकार कर पाते हैं। अधिकतर व्यक्ति ऐसी साधना करने में स्वयं को अक्षम पाते हैं। वे महाव्रतों की आंशिक साधना ही कर सकते हैं। इस अपेक्षा से दूसरा भेद अगार-धर्म है। इसमें अपवादपूर्वक व्रतों का स्वीकरण होता है, छोटे-छोटे नियमों के रूप में अहिंसा, सत्य आदि पांच व्रतों की यथाशक्य साधना की जाती है। अणगार-धर्म अंगीकार करनेवाले का जीवन जहां संपूर्ण रूप में त्यागमय होता है, वहीं अगार-धर्म स्वीकार करनेवाले के जीवन में त्याग और भोग दोनों का सम्मिश्रण होता है। जिस सीमा तक वह अहिंसा, सत्य आदि व्रतों की आराधना करता है, उस सीमा तक उसके जीवन में त्याग है और उसके अतिरिक्त भोग। भोग व्यक्ति की दुर्बलता है और त्याग बल। इसलिए वह उत्तरोत्तर भोग से त्याग की ओर गति करता रहे, यह नितांत अपेक्षित है। इस क्रम से अपनी क्षमता का विकास करता हुआ वह एक दिन अणगार-धर्म स्वीकार करने की स्थिति में पहुंच सकता है। ध्यान रहे, अणगार-धर्म स्वीकार करना, महाव्रती बनना, मुनि-दीक्षा अंगीकार करना जीवन का परम सौभाग्य है।
कलकत्ता ११ मार्च १९५९
धर्म के दो रूप
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