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३७ : धर्म के दो रूप ।
जैन-धर्म आत्म-विजेताओं का धर्म है, राग-द्वेष-जैसे आत्मविघातकारी दुर्गुणों पर विजय पानेवालों का धर्म है। बहुत महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इसमें व्यक्ति-पूजा को कहीं कोई स्थान नहीं है। पूजा गुणात्मकता की है। जितनी भी आत्माएं अतीत में वीतराग बनी हैं अथवा वर्तमान में हैं, वे सभी वंदनीय हैं, पूजनीय हैं-यह जैन-धर्म की स्वीकृति है, स्थापना है। प्रसिद्ध जैनाचार्य हेमचंद्र का अग्रोक्त श्लोक इसी तथ्य को पुष्ट करता है
भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य।
ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मैः॥ - राग आदि भव-संसार के बीजांकुर हैं, जन्म-मरण को उत्पन्न
करने के हेतु हैं। जिन्होंने ये दोष क्षीण कर दिए, उन्हें मेरा नमस्कार। फिर वे चाहे ब्रह्मा हो, विष्णु हों, शिव हों अथवा जिन हों। मेरी दृष्टि में गुण-पूजा की यह बात धार्मिक परिवेश में ही नहीं, सामाजिक परिवेश में भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यदि यह मूल्य स्थापित हो जाए तो समाज का कायाकल्प हो सकता है।
जैन-तीर्थंकरों ने जिस धर्म का प्रतिपादन किया, उसका स्वरूप आकाश की तरह व्यापक है। वह प्राणिमात्र के लिए आत्मोदय का साधन है। व्यक्तिवाद, जातिवाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद-जैसी किसी संकीर्णता से बंधा हुआ नहीं है। न उसमें लिंग, रंग, वर्ण, वर्ग-जैसे किसी भेद को स्थान है। वस्तुतः यह व्यापक स्वरूप ही उसे धर्म की सही प्रतिष्ठा प्रदान करता है।
साधना की दृष्टि से भगवान महावीर ने धर्म को अणगार-धर्म और अगार-धर्म-इन दो रूपों में विश्लेषित किया। अणगार-धर्म का विधान •९२.
--- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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