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लक्ष्य-निर्धारण से समाज में भ्रष्टाचार, अनैतिकता, संग्रह, शोषण, हिंसा, मद्यपान - जैसी बहुत-सी दुष्प्रवृत्तियों एवं विकृतियों को जन्म दिया है। अपेक्षित है कि जन-जन यह बात समझे कि भोग-विलास जीवन का सही लक्ष्य नहीं है। जीवन का सही लक्ष्य आत्मा का अभ्युदय है, आत्मा की पवित्रता है। जब लक्ष्य सही हो जाएगा, तब गलत दिशा में बढ़ते चरण स्वतः मुड़ जाएंगे और सही दिशा में गति शुरू हो जाएगी। उसकी सुखद परिणति यह होगी कि व्यक्ति का जीवन दुष्प्रवृत्तियों से मुक्त होकर सहज धार्मिक बन जाएगा, वह आर्य कहलाने की गुणात्मकता अर्जित कर लेगा । धर्म का स्वरूप और प्रभाव क्षेत्र
आर्य-अनार्य की इस चर्चा के संदर्भ में प्रासंगिक रूप में धर्म एवं धर्म के स्वरूप की बात भी स्पष्ट कर देना चाहता हूं। धर्म जीवन-शुद्धि / आत्मशुद्धि की प्रक्रिया का नाम है। कुछ लोग धर्म को उपासना और पूजा-पाठ तक सीमित कर देते हैं। यह उचित नहीं है। धर्म का प्रभाव क्षेत्र व्यापक है । इतना व्यापक कि वह जीवन के हर पहलू को छूता है, जीवन के हर व्यवहार को सुसंस्कृत बनाता है, हर आचरण को परिमार्जित करता है। उपासना और पूजा-पाठ तो गौण है । फिर केवल वह उपासना और पूजापाठ धर्म की कोटि में समाविष्ट होता है, जो व्यक्ति की जीवन-शुद्धि में प्रेरक एवं सहयोगी बनता है । जिस उपासना और पूजा-पाठ से इस उद्देश्य की पूर्ति नहीं होती, उसे धर्म नहीं माना जा सकता ।
धर्म में रम जाने के पश्चात व्यक्ति कोई ऐसा आचरण और व्यवहार करने की बात नहीं सोच सकता, जो उसे मानवीय धरातल से नीचे ले जाकर खड़ा कर दे । प्रकारांतर से ऐसा भी कहा जा सकता है कि जहां जीवन में धार्मिकता विकसित होती है, वहां मानवता तो सहज रूप में आ जाती है, फिर उसके लिए अलग से प्रयत्न करने की कोई अपेक्षा नहीं रहती। निश्चय में तो मानवता के आधार पर ही व्यक्ति मानव कहलाने का अधिकार प्राप्त करता है। यदि उसके जीवन में मानवीय गुण विकसित नहीं हुए हैं तो वह मात्र आकार से मानव है, वास्तविक मानव नहीं । अणुव्रत आंदोलन धर्म का ऐसा रूप है, जो व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन में मानवीय गुणों का संचार कर उसे सच्चा मानव बनाता है, सच्चा धार्मिक बनाता है, सच्चा आर्य बनाता है। अपेक्षा है कि आप अणुव्रत की आचार - संहिता संकल्प के स्तर पर स्वीकार करें।
कलकत्ता, ९ मार्च १९५९
आर्य कौन
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