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________________ गुरु चरणों पर प्रणत हो गया । सुनकर द्रोणाचार्य के मन में चिंतन आया - अध्ययन की जिस गहराई तक यह युधिष्ठिर पहुंचा है, उस गहराई तक तो मैं भी नहीं पहुंच पाया हूं। क्रोधं मा कुरु का पाठ पढ़ाता हुआ भी मैं गुस्सा करता हूं और इसने यह पाठ पढ़कर गुस्सा करना छोड़ दिया। भले मैं गुरु कहलाता हूं, पर वास्तव में तो यह मेरा गुरु है। अन्य छात्रों को संबोधित कर बोले - 'वास्तव में पाठ तो युधिष्ठिर ने ही पढ़ा है। तुम लोगों को भी इससे प्रेरणा लेनी चाहिए। पढ़ा हुआ पाठ जीवनगत बनाने का लक्ष्य बनाना चाहिए। उसे आचरण और व्यवहार में उतारने का क्रम सुनिश्चित करना चाहिए। तभी तुम लोगों के पढ़ने की सच्ची सार्थकता प्रकट हो सकेगी । ' इस घटना-प्रसंग से उपस्थित छात्र - छात्राओं को चाहिए। वे यह मानसिक संकल्प करें कि हम पढ़ाई को ही सीमित नहीं रखेंगे, उसे जीवन का हिस्सा बनाएंगे, अपने आचरण में ढालेंगे, व्यवहार में उतारेंगे। मैं मानता हूं, जीवन के सर्वांगीण विकास की यही प्रक्रिया है। शिक्षा का मूलभूत उद्देश्य जीवन का सर्वांगीण विकास करना ही है। यह प्रक्रिया अपनाकर ही वे विद्याध्ययन के वास्तविक लक्ष्य की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। आशा करता हूं, उपस्थित छात्र-छात्राएं इस बारे में गंभीरता से चिंतन करेंगे। भी प्रेरणा लेनी अक्षर - ज्ञान तक वाली (उत्तर पाड़ा) ६ मार्च १९५९ • ८४ Jain Education International For Private & Personal Use Only ज्योति जले : मुक्ति मिले www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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