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इससे भी आगे मैं तो यहां तक कहता हूं कि इन्हें आवश्यक मानते हुए ऐसा कहना कि इनके बिना काम नहीं चल सकता, एक प्रकार का अनाचार ही है, वैचारिक अनाचार है। चोर द्वारा चोरी को अपरिपार्य मान लेने से क्या उसे आवश्यक माना जा सकता है ? स्पष्ट है, नहीं माना जा सकता। मूलतः अपने असंयम या आदत की लाचारी के कारण कोई व्यक्ति किसी अवांछित और अनुचित प्रवृत्ति को भी आवश्यक मान सकता है, पर वास्तव में वह अनाचार ही है। अणुव्रतआंदोलन ऐसे समाज की संरचना करना चाहता है, जो आचारनिष्ठ हो, चरित्रसंपन्न हो, जिसका ढांचा संयम की भित्ति पर खड़ा हो ।
विद्या का फलित
छात्र - छात्राओं को यह बात गंभीरता से समझनी है कि विद्या चिंतन तक ही सीमित न रहे। यदि वह चिंतन तक ही सीमित रह जाती है तो मानना चाहिए कि वह भारभूत है । उसका फलित आचार है। यदि पढ़ा हुआ ज्ञान आचरण में नहीं ढलता है तो उसकी कोई सार्थकता प्रकट नहीं होती । धर्मशास्त्रों की परिभाषा के अनुसार सच्चा पंडित वही है, जो आचारवान हो । अनेक ग्रंथों का अध्येता भी यदि आचारसंपन्न नहीं है तो वह पंडित नहीं है। आपको सच्चा पंडित बनना है, इसलिए जो कुछ पढ़ें, उसे आचरण में उतारने का लक्ष्य बनाएं।
प्रसंग युधिष्ठिर का
महाभारत में युधिष्ठिर का प्रसंग है। कौरव और पांडव द्रोणाचार्य के पास अध्ययन करते थे। अध्ययन के क्रम में एक दिन द्रोणाचार्य ने पाठ दिया -क्रोधं मा कुरु । इसका अर्थ होता है - क्रोध मत करो। पाठ देकर गुरु द्रोणाचार्य ने सभी विद्यार्थियों को पाठ याद करने का निर्देश दिया। निर्देशानुसार सभी विद्यार्थी पाठ याद करने लगे। कुछ देर पश्चात एक-एक कर सभी विद्यार्थियों ने पाठ सुना दिया । केवल एक युधिष्ठिर शेष रहा। जब उसे पाठ सुनाने के लिए कहा गया, तब वह बोला- 'मुझे अभी तक पाठ याद नहीं हुआ है।' द्रोणाचार्य ने उपालंभ देते हुए अगले दिन पाठ याद कर आने का निर्देश दिया, पर अगले दिन भी उसने पाठ नहीं सुनाया। द्रोणाचार्य ने आज कड़ा उपालंभ दिया। बाबजूद इसके, तीसरे दिन बात वहीं की वहीं रही। इस क्रम से कई दिन और निकल गए। द्रोणाचार्य प्रतिदिन पाठ सुनाने के लिए कहते और युधिष्ठिर याद
ज्योति जले : मुक्ति मिले
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