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________________ उनके मन में आया-बारह वर्षों तक हमने अक्षर-ज्ञान पढ़ा, पर जीवन कढ़ा नहीं। अब तक विद्याध्ययन का भार ढोया है, उसका वास्तविक फल नहीं पाया, जीवन सुसंस्कारी नहीं बना। धिक्कार है हमारे अध्ययन को!....."अनुताप की भावधारा में बहते हुए उन्होंने अपने इस प्रमाद का प्रायश्चित्त करने का चिंतन किया और बहुत जल्दी ही वे एक निश्चय तक पहुंच गए। उन्होंने संकल्प किया-इस प्रमाद के प्रायश्चित्तस्वरूप हम दोनों आजीवन अविवाहित रहेंगे। ___ अपने निश्चय और मानसिक संकल्प से उन्होंने माता-पिता को अवगत करवाया। उन्होंने विचार-परिवर्तित करने का प्रयत्न किया, पर वे सफल नहीं हुए। ज्यादा दबाव डाला तो दोनों भाई बोले-'सगी बहिन पर विकार-दृष्टि करके हमने भयंकर पाप किया है। इस पाप का इससे छोटा कोई प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। इस प्रायश्चित्त से ही हमारी आत्मा इस भयंकर पाप से मुक्त हो सकेगी।' दोनों के दृढ़ संकल्प के समक्ष राजारानी को अपना प्रयत्न और दबाव छोड़ना पड़ा।' आचार : अनाचार यह एक प्रेरक उदाहरण है। क्या आज के विद्यार्थी भी चक्षुअसंयम के प्रायश्चित्त की कोई बात सोचते हैं ? मैं सभी छात्र-छात्राओं से कहना चाहता हूं कि वे चक्षु-संयम की साधना करें। जहां-कहीं चक्षु-असंयम हो, उसका स्वेच्छा से उचित प्रायश्चित्त करें। इसी प्रकार अन्य-अन्य इंद्रियों के संयम की बात का अभ्यास करें, मन का संयम करना सीखें। मूलतः संयम जीवन का सारभूत तत्त्व है। संयम के बिना शिक्षा सफल नहीं हो सकती। अणुव्रत-आंदोलन विद्यार्थियों के जीवन को संयम के सांचे में ढालना चाहता है। छोटे-छोटे संकल्पों या नियमों के द्वारा वह विद्यार्थियों को आचारवान और चरित्रसंपन्न बनाना चाहता है। संयमयुक्त प्रवृत्ति आचार है, चरित्र है। इसके विपरीत असंयमपूर्ण हर प्रवृत्ति और व्यवहार अनाचार है। भोजन शरीर-निर्वाह के लिए आवश्यक है, किंतु स्वाद लोलुपता के कारण कुछ भी खाया जाता है तो वह अनाचार है। इसी प्रकार बोलने में संयम नहीं है, विवेक का अंकुश नहीं है, उसके साथ प्रदर्शन की भावना जुड़ी हुई है तो वह अनाचार ही है। धूम्रपान और मद्यपान दोनों ही जीवन के लिए आवश्यक नहीं हैं। इसलिए ये दोनों प्रवृत्तियां अनाचार में समाविष्ट हैं। विद्याध्ययन क्यों -८१. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003113
Book TitleJyoti Jale Mukti Mile
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages404
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size13 MB
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