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दृष्टि-संयम आदि की साधना अत्यंत सजगतापूर्वक करते, पर आज कहां है यह संयम की साधना? जहां सह-शिक्षा चलती है, वहां यदि दृष्टिसंयम की साधना नहीं होती है तो अनेक प्रकार की विकृतियां पैदा होने लगती हैं। मातृवत् परदारेषु का आदर्श निभता नहीं, खंडित हो जाता है। प्राचीन समय में यदि कोई विद्यार्थी दृष्टि-संयम की साधना से स्खलित होकर किसी को विकार-दृष्टि से देख लेता तो अपने इस प्रमाद का प्रायश्चित्त करता। प्रसंग जैन-रामायण का
__ जैन-रामायण में एक घटना-प्रसंग आता है। राजा के दो कुमारों ने गुरुकुल में बारह वर्षों तक गहन अध्ययन किया। अध्ययन की संपन्नता के पश्चात परीक्षा हुई। परीक्षा में वे पूर्ण उत्तीर्ण हुए। गुरुकुल के कुलपति स्वयं उन्हें लेकर राजधानी पहुंचे। राजधानी में दोनों राजकुमारों का भव्य स्वागत हुआ। जब वे कुलपति के साथ राजसभा में प्रविष्ट हो रहे थे, तभी सहसा उन दोनों की दृष्टि राजभवन के एक झरोखे पर गई। झरोखे में एक कन्या खड़ी थी। पहली बार में ही दोनों राजकुमार उसके रूपलावण्य पर मोहित हो गए। मन में विकार भावना पैदा हो गई। दोनों उसे पाने के लिए लालायित हो उठे।
__राजसभा में पहुंचकर दोनों राजकुमारों ने राजा के पैर छुए। राजा अपने लाडलों का खिलता व्यक्तित्व देख अत्यंत प्रसन्न हुआ। उसने राजकुमारों की परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किए। दोनों कुमारों ने समुचित उत्तर देकर राजा को पूर्ण संतुष्ट किया। राजा ने कुलपति को पुरस्कृत कर ससम्मान विदा किया।
राजसभा से चलकर दोनों राजकुमार महल में आए और उन्होंने माता को प्रणाम किया। रानी का प्रसन्न होना स्वाभाविक ही था।
तभी वह कन्या भी वहां पहुंच गई। उसे देखते ही दोनों राजकुमारों ने अधीरतापूर्वक रानी से पूछा-'मां! यह कौन है?' रानी बोली-'यह तुम्हारी ही तो छोटी बहिन है। इसे भी नहीं पहचानते? पर पहचानो भी तो कैसे! जब तुम गुरुकुल गए थे, तब यह मात्र पांच वर्ष की थी। अब यह सतरह वर्ष की हो चुकी है। इस अवधि में इसकी कद-काठी में बहुत बदलाव आ गया है।' सुनकर दोनों राजकुमार भाइयों का मन अनुताप से भर गया।
-- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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