________________
संकीर्णता दृष्टि में होती है
मेरा रूप एक प्रकार का है और क्रिया-कलाप दूसरे प्रकार का। वेशभूषा जैन-मुनि की है और कार्यशैली असांप्रदायिक, पर मेरे लिए यह कोई समस्या नहीं है। जैन-तत्त्वों की साधना करने मात्र से संकीर्णता नहीं आ जाती। संकीर्णता तो दृष्टि में होती है। अहिंसा, सत्य आदि जिन तत्त्वों की साधना मैं करता हूं, वे जैन-धर्म से संबद्ध अवश्य हैं, पर संकीर्ण नहीं हैं। वे तो सर्वथा व्यापक तत्त्व हैं। सभी धर्म उन्हें किसी-न-किसी रूप में अवश्य स्वीकार करते हैं। शब्दांतर से कहं तो वे जन-तत्त्व हैं, सार्वजनीन तत्त्व हैं। सभी जाति, वर्ग, संप्रदाय के लोग उनकी साधना कर सकते हैं। आप भी उन्हें जन-तत्त्वों के रूप में पहचानें। आपको कहीं कोई संकीर्णता नजर नहीं आएगी। वैसे मुझे जैन नाम से कोई व्यामोह नहीं है। ऐतिहासिक दृष्टि से पहले जैन नाम था ही नहीं। प्राचीनकाल में जैन-धर्म को निग्गंथं पवयणं-निग्रंथ प्रवचन कहा जाता था। नाम तो समय-समय पर परिवर्तित होता रहता है। मूल बात है-तत्त्वों की। वे तत्त्व शाश्वत हैं, व्यापक हैं। अहिंसा, सत्य आदि उन तत्त्वों को मैं यदि जैन नाम से भी कहूं तो मुझे उसमें कोई संकीर्णता नहीं लगती, क्योंकि मेरी दृष्टि संकीर्ण नहीं है। मैं व्यापक और असांप्रदायिक दृष्टिकोण से कार्य कर रहा हूं। अणुव्रत-आंदोलन असांप्रदायिक है
पिछले एक दशक से मैं अणुव्रत-आंदोलन का कार्यक्रम चला रहा हूं। यह कार्यक्रम केवल जैन लोगों के लिए नहीं है, बल्कि मानव-मात्र के लिए है। किसी संप्रदाय, जाति, वर्ण, वर्ग और देश का व्यक्ति इसकी आचार-संहिता स्वीकार कर अणुव्रती बन सकता है। यह सर्वथा असांप्रदायिक एवं व्यापक कार्यक्रम है। कल ही गौरीनाथजी शास्त्री कह रहे थे-'अणुव्रत-आंदोलन अपने-आपमें अंतरराष्ट्रीय कार्यक्रम है। किसी देश का वासी यह नहीं कह सकता कि इसकी आवश्यकता नहीं है। अलबत्ता इसकी आचार-संहिता का कोई नियम किसी राष्ट्र की स्थानीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में अत्यावश्यक है तो दूसरे राष्ट्र की स्थानीय परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में कम आवश्यक, परंतु आचार-संहिता की आवश्यकता और उपयोगिता सभी के लिए असंदिग्ध रूप में है। वैसे प्रचार के स्तर पर यह अंतरराष्ट्रीय बन ही चुका है। अब अपेक्षा है, इसे
अणुव्रत-आंदोलन का स्वरूप
७७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org