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३२ : अणुव्रत-आंदोलन का स्वरूप
यात्रा का उद्देश्य
आज हम कलकत्ते के सन्निकट पहुंच गए हैं। कई लोगों ने पूछा-'आपकी पदयात्रा का हेतु क्या है ?' मैंने कहा-'यों तो हमारी यात्रा अहेतुक है। संन्यास का पालन करना हमारा लक्ष्य है। उसके लिए अहिंसा आदि व्रत निभाना आवश्यक होता है। इस दृष्टि से पदयात्रा जरूरी है। यान-वाहन से यात्रा करने से यह व्रत पूर्णतया निभता नहीं। ऐसी स्थिति में संन्यास का पालन भी सम्यक रूप से नहीं होता, पर दूसरी अपेक्षा से यह सहेतुक भी है। हेतु क्या है? हेतु यह कि संन्याससाधना के आधार पर हमने जो-कुछ पाया है, पा रहे हैं, उससे जनजन को परिचित करवाना, उसे जनता में बांटना।' पूर्वाचार्यों के पुण्य-प्रताप का फल
___ तेरापंथ संघ का प्रारंभ हुए दो सौ वर्ष हो रहे हैं। इस अवधि में मुझसे पूर्व आठ आचार्य हो चुके हैं, पर किसी पूर्वाचार्य ने इतनी लंबी यात्रा नहीं की। सबने अनुग्रह कर यह अवसर मुझे ही प्रदान किया है। कुछ लोग कहते हैं-'यह तो आपका ही पुण्य-प्रताप है।' पर मेरी दृष्टि में यह सही नहीं है। आठों पूर्वाचार्यों की साधना का सार मेरे पास है। उस धन से मैं धनी हूं। बेटा पिता की कमाई का उपयोग करे और उसे अपनी समझे-यह अनुचित है। यह गर्व उसकी अवनति का लक्षण और कारण है। मैं ऐसा गर्व नहीं करता। मेरे पास जो-कुछ है, वह सब पूर्वाचार्यों का ही है। मैं जो-कुछ हूं, वह भी उन्हीं की बदौलत हूं और जो कुछ करता हूं, वह उन्हीं के आलोक में करता हूं। यह प्रलंब यात्रा भी उन्हीं के पुण्य-प्रताप का फल है। मैं तो उनकी कृपा से निमित्त मात्र हूं।
- ज्योति जले : मुक्ति मिले
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