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समस्या कलह की
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लड़ना चाहता है वह तेरा सगा भाई है । मेरी कोंख से ही जन्मा हुआ है । दूसरे खेमे में गई। वहां भी यही कहा । दोनो को यथार्थता का ज्ञान हुआ । सोचा, अरे! यह कैसा युद्ध! भाई के साथ युद्ध ! दोनों का रणभूत भाग गया। दोनों आए । गले मिले और रणभूमि प्रेमभूमि बन गई ।
कलह का बहुत बड़ा कारण है वस्तुस्थिति का अज्ञान। यहां अध्यात्म, प्रेम और मौन का प्रयोग कर समस्या को सुलझाया जा सकता है 1
समस्या का समाधान खोजना है। समाधान है मौन । मौन कहें या त्याग — दोनों एक हैं। जब- जब मैंने अध्यात्म की गहराइयों में जाकर उसे समझने का प्रयत्न किया, मुझे लगा कि त्याग को छोड़कर कोई अध्यात्म है ही नहीं । अध्यात्म का अर्थ है— छोड़ते चलो, त्यागते चलो। लेने की बात अध्यात्म में नहीं है । अध्यात्म न खेती करता है, न उद्योग चलाता है और न व्यापार-व्यवसाय करता है। उसके पास लेने की नहीं, केवल छोड़ने की बात शेष रहती है । छोड़ते चलो, छोड़ते चलो। त्याग, त्याग और त्याग ।
दुनिया में दो शक्तियां काम करती हैं। एक है भोग की शक्ति और दूसरी है त्याग की शक्ति । भोग की शक्ति में बटोरने की बात होती है, लेते जाओ, लेते जाओ । त्याग की शक्ति में छोड़ने की बात प्राप्त होती है, छोड़ते जाओ, छोड़ते जाओ । व्यक्ति बटोरने के एक बिन्दु से चलता है और चलते-चलते वह बिन्दु विराट् होकर सारे संसार को बटोरने की बात तक फैल जाता है। आरम्भ एक बिन्दु से होता है और अन्त में वह पूरे ब्रह्मांड को अपने वक्ष में समेट लेता है । इतना विस्तार ! यह है भोग का साम्राज्य ।
त्याग का सूत्र है, सिमटते जाओ, सिमटते जाओ, सिमटते जाओ । सिमटतेसिमटते द्वैत से अद्वैत में आ जाओ ।
भोग है विस्तारवाद, भेदवाद, द्वैतवाद और त्याग या संयम है संग्रहवाद, अभेदवाद, अद्वैतवाद |
त्याग और भोग— दोनों महाशक्तियां हैं, बड़ी शक्तियां हैं ।
उत्तराध्ययन सूत्र का एक प्रसंग है। कपिल ब्राह्मण राजा के समक्ष उपस्थित हुआ। राजा ने कहा— मांगो। जो मांगोगे वह मिलेगा । कपिल ने सोचा- मैं तो दो मासा सोना लेने आया था और राजा प्रसन्न होकर मांगने को कह रहा है, अब क्या मांगूं, कितना मांगूं ? भोग की शक्ति उभरी । विस्तारवाद से मन भरने लगा । सोचा, दो मासा क्या, दो सेर सोना मांग लूं । भोग की शक्ति उत्तेजित हुई । सोचा, लाख मांग लूं। नहीं, नहीं, लखपति तो बहुत हैं। करोड़ मांगकर करोड़पति बन जाऊं । नहीं, नहीं, इस नगर में बीस
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