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समस्या कलह की
किसी ने नहीं रखा। ढील किसी ने नहीं दी। मुकदमा चला। विद्वान् और अनुभवी न्यायाधीश ने दोनों को समझाया। दोनों बात पर अड़े थे। न्यायाधीश ने फैसला दिया—पेड़ को काट कर उसकी लकड़ी आधी-आधी दोनों को दे दी जाए। दोनों देखते रह गए। मामला साफ हो गया। __ क्या इसका समाधान मौन नहीं था? एक व्यक्ति अपने आग्रह को छोड़ देता. मौन हो जाता तो फैसला हो गया होता। पर आग्रही मनोवृत्ति ने दोनों को पछाड़ डाला।
एक बार दो भाई बंटवारे के समय आटा पीसने की चाकी के लिए अड़ गए। अन्त में पंचों ने यह फैसला दिया कि चाकी के दो पाट होते हैं। एक पाट बड़े भाई को दे दिया जाए और एक पाट छोटे भाई को सौंप दिया जाए। वैसा ही किया गया। अब न आटा बड़ा भाई पीस पाता है और न छोटा भाई। दोनों के लिए चाकी बेकार हो गई। ___इस आग्रहीवृत्ति के कारण कलहपूर्ण वातावरण पैदा हो जाता है। इस स्थिति में यदि एक व्यक्ति मौन का प्रयोग करता है तो मौन का अर्थ समझ में आ सकता है।
अनेक व्यक्ति मौन करते हैं। अन्यान्य स्थानों पर लगने वाले शिविरों में मौन का कड़ाई से पालन कराया जाता है। मैं भी मानता हूं कि मौन बहुत आवश्यक है। पर मौन का अर्थ जब तक मेरे गले न उतर जाए तब तक कड़ाई नहीं बरत सकता। मौन का अर्थ भी विचित्र-सा हो गया है। दस दिन तक तो मौन रह जाते हैं, ग्यारहवें दिन जब घर जाते हैं तब वैसे के वैसे बने रहते हैं। यह न समझें कि ध्यान-काल में विशेष मौन करना ही है। ध्यान में मौन आ ही जाता है। मौन का अर्थ समझ लेना है कि मौन कब करना चाहिए, कहां करना चाहिए? जब तक इस देश और काल के निर्धारण का अवबोध सम्यक नहीं हो जाता तब तक मौन करना उपयोगी नहीं होगा। मौन वहां करना है जहां विवाद और संघर्ष बढ़ने की आशंका हो। जहां चिन्तन, रुचि का भेद हो, आग्रह हो वहां मौन का अर्थ है। वहां मौन का अभ्यास आवश्यक है। न बोलने का अभ्यास नहीं, किन्तु संघर्ष की स्थिति में न बोलने का अभ्यास। एक है न बोलने का अभ्यास, दूसरा है वैसे प्रसंगों में न बोलने का अभ्यास फलदायी होता है। प्रतिक्रिया के क्षण में मौन लाभदायक होता है और यही है वह क्षण जब मौन करना आवश्यक होता है। हम यह संकल्प करें कि ऐसे क्षणों में मौन का अभ्यास करेंगे। इस प्रकार के मौन को मैं बहुत सार्थक मानता हूं और ऐसे मौन के लिए कड़ाई भी की जा सकती है। किन्तु अमुक
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