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१२. समस्या कलह की
समस्या है मौन की। पहले हम इस पर विचार करें। प्रेक्षाध्यान के शिविर में लोग मौन का अभ्यास करते हैं। अन्यान्य अध्यात्म के क्षेत्रों में हजारों-हजारों लोग मौन का अभ्यास करते हैं। कोई एक वर्ष का, कोई बारह वर्ष का, कोई एक माह का, कोई एक दिन-रात का और कोई दिन में दो-चार घंटों का अभ्यास करता है। यह बहुत अच्छी साधना है। किन्तु मैं इस मौन का अर्थ समझ नहीं पाया हूं। जब कोई स्थिति सामने नहीं है, तब तो मौन और जब स्थिति सामने होती है मौन रहने की तब मौन खुल जाता है। कलह के प्रसंग में अ-मौन और कलह के अ-प्रसंग में मौन। भोजन किया बारह बजे। अब दो घंटा विश्राम करना है, तब मौन, नींद में कौन बोलेगा? किससे बोलेगा? रात को मौन । अकेले में मौन और दूसरा सामने है तब अमौन । मैं नहीं समझ सका कि मौन का अर्थ क्या है?
आचारांग सूत्र का एक प्रसंग पढ़ा तो मौन का वास्तविक अर्थ कुछ समझ में आया। पर वह व्यवहार में नहीं उतर रहा है। वहां प्रसंग है, एक मुनि है। किसी दूसरे संप्रदाय के मुनि या गृहस्थ ने उससे कुछ पूछा। मुनि जो जैसा जानता था, उत्तर दे दिया। पर प्रश्न करने वाला कहता है कि यह हेतु उचित नहीं है। मुनि ने कहा यह हेतु और तर्क ठीक है। पर सामने वाला अपनी बात पर अड़ा हुआ है और कहता है, ऐसा हो ही नहीं सकता, तीन काल में भी ऐसा नहीं हो सकता। अब मुनि क्या करे? क्या उससे कलह करे? लड़े? भगवान् ने कहा ऐसी स्थिति में वाणी की गुप्ति कर ले. मौन कर ले। ठीक है। जो मैं जानता हूं वह बता दिया। अब उसे मानो या ना मानो, यह तुम्हारी इच्छा। मैं कौन होता हूं मनवाने वाला। मेरे पास मनवाने का कोई अधिकार भी तो नहीं है। कोई साधन नहीं है। जो मानना चाहता ही नहीं, उसे ईश्वर भी नहीं मनवा सकता। राजा किसी को मार सकता है, पर मनवा नहीं सकता। मनवाने की बात दुनिया में नहीं है। यह कितना सुन्दर निदर्शन है कि तुम स्वयं वाग्गुप्ति कर लो, मौन हो जाओ।
जो तत्त्व जाना हुआ नहीं है तो स्पष्ट कह दो, मैं नहीं जानता और मौन हो जाओ। यह मौन का प्रयोग समझ में आता है। किन्तु दिन भर कलह करना, गालीगलौज करना, लड़ना और घंटा, दो घंटा मौन करना, यह कैसा मौन!
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