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उदात्तीकरण क्रोध का है। कई व्यक्ति कहते हैं, मैं राजस्थान में था तब बड़ा शांत था। दूसरे प्रदेश में चला गया तो मेरा स्वभाव चिड़चिड़ा बन गया, क्रोध अधिक आने लगा। इस घर में रहता था तो शांत रहता था। अब उस नए घर में रहने लगा हूं तो स्वभाव भी बदल गया है। अशांत रहने लगा हूं।
क्रोध की उत्पत्ति में देश और काल भी निमित्त बनते हैं।
हमने क्रोध के कारणों पर विचार किया। अब हम उसके स्वरूप की मीमांसा करें। क्रोध सबको आता है। कोई भी आदमी ऐसा नहीं है, जिसे क्रोध न आता हो। केवल वीतराग अवस्था ही एक ऐसी अवस्था है जिसमें व्यक्ति क्रोध नहीं करता। उस अवस्था को जब तक व्यक्ति प्राप्त नहीं कर लेता, जब तक वह वीतराग नहीं बन जाता, तब तक वह क्रोध से सर्वथा छुटकारा नहीं पा सकता। व्यक्ति व्यक्ति में क्रोध की मात्रा का तारतम्य रहता है। हम मात्रा और अवधि इन दो दृष्टियों से विचार करें। कर्मशास्त्र में इन दो दृष्टियों पर विचार किया गया है और मनोविज्ञान ने तीव्रता और मंदता इन दो दृष्टियों से विचार किया है। कर्मशास्त्र का चिन्तन और अनुभव बहुत पुराना है। हम उसकी चर्चा करें। मात्रा और अवधि, तीव्रता और मंदता-इन में विशेष अन्तर नहीं है। कथन का प्रकार भिन्न-भिन्न है।
कर्मशास्त्र ने क्रोध को चार भागों में बांटा है
१. एक वह क्रोध जो पर्वत की रेखा के समान गाढ होता है। चट्टान पर पड़ी रेखा अमिट बन जाती है। सैकड़ों-हजारों वर्षों तक वह लकीर बनी रहती है, मिटती नहीं।।
२. एक क्रोध होता है भूमी की रेखा के समान। वह चट्टान की रेखा जितना तीव्र या स्थायी नहीं होता। ___३. एक क्रोध होता है बालू की रेखा के समान। बालू में लकीर कुछ समय तक टिक पाती है। हवा के चलते ही वह मिट जाती है।
४. एक क्रोध होता है पानी पर पड़ी रेखा के समान । पानी पर रेखा पड़ती नहीं, मिट जाती है।
पहला तीव्रतम क्रोध है। दूसरा तीव्र है। तीसरा मंद है और चौथा मंदतर है। क्रोध की ये चार स्थितियां हैं। तीव्रतम क्रोध की अवधि बहुत लम्बी होती है। अनेक जन्मों तक वह साथ रहता है, मिटता नहीं। यह चट्टान की रेखा की भांति अमिट होता है, मिटता ही नहीं। दूसरे क्रोध की स्थिति में तीव्रता कम हो जाती है। वह स्थिति भी वर्षों तक चल सकती है, पर बहुत लम्बी अवधि तक नहीं चल सकती। मिट जाती है। तीसरी बालू की रेखा। बालू की लकीर तब तक ही टिक पाती है जब तक हवा न चले। हवा चली और बालू
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