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________________ 88 सोया मन जग जाए इतना ही नहीं है कि उससे भूख मात्र मिट जाए। यह तो एक उद्देश्य है। पर खाने के पश्चात् क्या-क्या होता है, यह जान लेना भी आवश्यक है। शिविर-काल में व्यक्ति को यह सही भान हो जाता है कि भोजन की उपेक्षा करना बुद्धिमानी का काम नहीं है। जो व्यक्ति भोजन पर, खाद्य पदार्थों पर ध्यान नहीं देता, वह अपने जीवन में अनेक न्यूनताएं एकत्रित कर लेता है। अपराध, अहंकार, क्रोध, लोभ आदि वृत्तियों को पैदा करने में आहार का बहुत बड़ा हाथ है। हमें यह अनुभव है कि जो व्यक्ति अधिक तामसिक भोजन करता है, मिर्च-मसाले खाता है, वह अधिक क्रोधी भी होता है। क्रोध की उत्पत्ति का छठा कारण है पित्त की प्रबलता। जिसमें पित्त की प्रबलता होती है, उसमें क्रोध अधिक उभरता है। जो वस्तुएं पित्त को बढ़ाती हैं, उनका सेवन करना, क्रोध को बढ़ाना है। भोजन पर ध्यान देना इसलिए जरूरी है कि जो खाए उसमें गर्मी बढ़ाने वाला न हो। वह उत्तेजना न बढ़ाए। पित्त शरीर के लिए आवश्यक है। पर उसकी अतिरिक्त बुद्धि हानिकारक होती है। संतुलन अपेक्षित है। पित्त पाचन के लिए आवश्यक होता है। पर वह इतना न बढ़ जाए कि क्षमा का भाव जागे ही नहीं। व्यक्ति केवल क्रोध ही करता रहे। अम्लता की वृद्धि चिड़चिड़ापन लाती है। दोनों जुड़े हुए हैं। जिसमें अम्लता अघि कि होगी, वह अधिक चिड़चिड़ा होगा। ___ क्रोध की उत्पत्ति का सातवां कारण नहीं, अकारण है, कर्म का उदय। यह आन्तरिक कारण है, इसलिए इसे अकारण कहना चाहिए। आन्तरिक दृष्टि से कारण और बाह्य से अकारण। कर्मशास्त्र की भाषा में इसे हम कर्म का विपाक और शरीरशास्त्र की भाषा में इसे हम अन्त:स्रावी ग्रन्थियों के स्रावों का असंतुलन कह सकते हैं। कभी-कभी बिना किसी हेतु या कारण के ही आदमी गुस्से में आ जाता है। वह समस्या में उलझ जाता है, कुछ भी समझ नहीं पाता। आगमों में इसे आत्म-प्रतिष्ठित क्रोध कहा है। एक क्रोध होता है पर-प्रतिष्ठित अर्थात् बाहरी उद्दीपनों के आधार पर होने वाला क्रोध और एक होता है आत्म-प्रतिष्ठित-बिना किसी हेतु के होने वाला क्रोध। बाहरी कोई उद्दीपन या कारण नहीं, आदमी बैठा है और अकस्मात् क्रोध से आविष्ट हो जाता है। यह आन्तरिक कारण से उत्पन्न क्रोध है। ___ क्रोध की उत्पत्ति के कुछेक कारणों की मीमांसा हमने की। इनके अतिरिक्त देश और काल भी उसकी उत्पत्ति में सहयोगी बनते हैं। गर्मी का मौसम क्रोध आने के लिए बहुत अनुकूल है। काल भी क्रोध का उद्दीपन करता है। कुछेक देश या स्थान ऐसे होते हैं, जहां पर जाने से क्रोध अधिक उभरता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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