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________________ 87 उदात्तीकरण क्रोध का को अनुत्तीर्ण होने का कष्ट जितना नहीं सताता, उससे अधिक सताता है माता-पिता का क्रोध। यह क्रोध माता-पिता का मनचाहा न होने के कारण उत्पन्न होता है। ___ एक सास चाहती है कि नई वधू इतना देहज लेकर आए। दहेज उतना नहीं मिला, इच्छा पूरी नहीं हुई, सास कुपित हो जाती है और कभी-कभी यह क्रोध सीमा पार कर जाता है और प्राण घातक सिद्ध होता है। क्रोध की उत्पत्ति का तीसरा कारण है शरीर का स्वस्थ न होना। आदमी बीमारी का कष्ट भोगता है। धीरे-धीरे उसका स्वभाव चिड़चिड़ा होता जाता है। कोई उसके स्वास्थ्य के विषय में पूछता है तो उस पर भी उबलते हुए कहता है बार-बार क्या पूछ रहे हो? कितना भोग रहा हूं, क्या दिखाई नहीं देता? सहानुभूति दिखाने वाले पर भी वह बरस पड़ता है। उसे क्रोध का आवेश शीघ्र आने लगता है। यह क्रोध शारीरिक अस्वस्थता के कारण पैदा होता है। शारीरिक अस्वस्थता में यदि सेवा ठीक नहीं होती तो क्रोध की ज्वाला और अधिक भभक उठती है। क्रोध की उत्पत्ति का चौथा कारण है-मानसिक अस्त-व्यस्तता। जब मन स्वस्थ नहीं होता, संतुलित नहीं होता तब क्रोध के उत्पन्न होने का अवसर रहता है। मानसिक अस्त-व्यस्तता में हितकारी और प्रिय बात भी गुस्सा उत्पन्न कर देती है। उसे वह बात भी अप्रिय लगती है। पानी बरस रहा था। बया पक्षी अपने सुन्दर नीड़ में आराम से बैठा था। ठंडी हवा चल रही थी। पक्षी ने देखा कि पेड़ पर एक बंदर बैठा है और ठंड में ठिठुर रहा है। उसने प्रेम की भाषा में कहा—भाई बंदर! तुम घर बनाने में सक्षम हो। तुम मनुष्य जैसे लगते हो। तुम्हारे हाथ हैं, पैर हैं, सब कुछ हैं। फिर तुम घर क्यों नहीं बना लेते?' ___ बंदर का अंहकार जाग उठा। उसने सोचा, एक छोटा-सा पक्षी मेरे अहंकार पर चोट कर रहा है। उसने क्रोध के आवेश में कहा-'अरे सूचीमुखी! तू मुझे क्या सीख दे रहा है। मैं सब कुछ जानता हूं। छोटे मुंह बड़ी बात करते शर्म नहीं आती? मैं घर बनाने में समर्थ हूं या नहीं, पर घर तोड़ने में अवश्य ही सक्षम हूं।' यह कहते हुए बन्दर ने बया का नीड़ उखाड़ा और नीचे भूमी पर पटक दिया। ऐसा मानसिक असंतुलन के कारण होता है। क्रोध की उत्पत्ति का पाचवां कारण है-भोजन। मनुष्य के स्वभाव का और आहार का गहरा सम्बन्ध है। प्राचीन काल में भोजन के विषय में काफी ध्यान दिया गया था। आज के वैज्ञानिक फिर से इस बात पर ध्यान दे रहे हैं कि किस प्रकर का भोजन किस प्रकार के स्वभाव का निर्माण करता है। भोजन का कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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