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युद्ध : अहंकार के साथ जोडूं। वह बिलकुल नम्र हो जाता है। वह सत्य के प्रति विनम्र, दूसरों के प्रति विनम्र और सबसे पहले अपने प्रति विनम्र बन जाता है। अहंकार पर विजय पाने की यह अपूर्व परिणति है। अहंकार विजय का व्यावहारिक परिणाम है विनम्रता।
इसका आध्यात्मिक परिणाम है अस्तित्व की सतत अनुभूति, स्मृति। अपने अस्तित्व का बोध, अपने आपका बोध। यह बोध उसी व्यक्ति को होता है जो कोरा होता है, अहंकार के साथ 'कुछ' को नहीं जोड़ता। वही व्यक्ति समझ सकता है कि मैं क्या हूं? मैं कौन हूं? मेरा स्वरूप क्या है? मेरा अस्तित्व क्या है ? इन चारों प्रश्नों का उत्तर वही व्यक्ति पा सकता है।
प्रेक्षाध्यान के शिविर में आने वाले साधक यह 'कुछ' की बात को समझें। अस्तित्व के साथ जो 'कुछ' जोड़ रखा है उसे तोड़ने का प्रयास करें। एक दो दिन में यह टूटेगा नहीं, पर तोड़ने के मार्ग पर चलते चलें। आप कहेंगे, तोड़ने की सामग्री लेकर हम नहीं आए हैं। मैं कहता हूं, सारी सामग्री आपके पास है। आप श्वास को, शरीर को, रंगों को, चैतन्य-केन्द्रों को साथ में लेकर आए हैं। पूरी सामग्री आपके पास है। 'कुछ' को तोड़ने के ये सारे साधन हैं। 'विषस्य विषमौषधं', ' कंटकं कंटकेनोद्धरेत्' । विष ही विष की औषधि होती है और कांटे से ही कांटा निकलता है। वैसे ही आप अपने ही शस्त्रों से उनको तोड़ें, सफलता मिलेगी।
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