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________________ सोया मन जग जाए सचाई को हम कभी न झुठलाएं। प्रत्येक व्यक्ति में जीवन के प्रति इतनी मूर्छा है कि वह कभी सोचता ही नहीं कि उसे एक दिन मरना है। उसकी सारी प्रवृत्ति अमर बने रहने जैसी होती है। जो एक दिन मरने की सचाई को सामने रखकर अंहकार से लड़ता है, वह विजयी बन जाता है। जो इस सचाई को झुठलता है वह सदा धोखा खाता है। फिर वह कहता रहता है, मैंने कितने सपने संजोए थे, पर सब कुछ मन में ही रह गए। सारे सपने अधूरे रह गए, कल्पनाएं पूरी नहीं हुई। संसार में ऐसे कम व्यक्ति हुए हैं, जिन्होंने यह कहा हो कि जो कुछ सोचा था, वह पूरा हो गया। मन में कुछ भी शेष नहीं रहा। केवल आध्यात्मिक व्यक्ति ही ऐसा कह सकता है, क्योंकि वह अहंकार में नहीं जीता, वह सचाइयों को जीता है। जिनके मन में अहंकार था, 'कुछ' जुड़ा हुआ था वे सब यह राग आलापते-आलापते ही प्राण छोड़े कि मन में यह शेष रह गया, वह शेष रह गया, यह करना था, वह करना था। आचार्य भिक्षु से पूछा गया, महाराज! आपका अब अन्तिम समय है। समाधि मरण का क्षण सन्निकट है, आपके मन में कोई बात तो नहीं रही? आपका कार्य कोई शेष तो नहीं रहा? आचार्य भिक्षु मेरे मन में कुछ भी शेष नहीं है। कोई बात बाकी नहीं है। जो कुछ करना था कर लिया। सब कुछ संपन्न है अब। यह सब कुछ कर लेने की अनुभूति और कुछ भी शेष न रहने की अनुभूति उसी व्यक्ति को हो सकती है जिसने अहंकार पर विजय पा ली है और जो सचाइयों को जीवनगत करता हुआ अपने अस्तित्व के साथ जुड़ गया है। सीमाओं और तारतम्य का अवबोध हो जाने पर व्यक्ति अहंकार के साथ लड़ सकता है और उसे पराजित कर सकता है। प्रश्न होता है कि आखिर इस लड़ाई का परिणाम क्या होगा? दो बातें होंगी। अहंकार हारा, 'कुछ' मिटा, कोरा 'अंह' रहा। इसका व्यावहारिक अर्थ होगा विनम्रता और आध्यात्मिक अर्थ होगा अस्तित्व की अनुभूति। विनम्रता उसी व्यक्ति में आती है, जिसने अहंकार की सचाई को समझा है, उसके स्वरूप का अवबोध किया है, आकांक्षा के स्वरूप और परिणामों को समझा है और आकांक्षा होने वाले मानसिक रोगों तथा उनके भंयकर परिणामों को समझा है। ऐसा व्यक्ति ही विनम्र हो सकता है। अन्यथा उदंडता, दर्प और मादकता रहती है। वह सोचेगा, मैं । क्यों झुकू, मैं यह-वह सब कुछ कर सकता हूं। मैं दूसरों को झुकाने में समर्थ हूं, फिर मैं क्यों झुकू? मैं टूटने वाला तिनका नहीं हूं, पर तोड़ने वाला परशु हूं। ऐसा व्यक्ति कभी अंहकार के साथ लड़ नहीं सकता। जो व्यक्ति सचाइयों को समझ चुका है, वह सोचता है, ऐसा कोई कारण नहीं है कि जिसके आधार पर मैं अंहकार करूं या आकांक्षा संजोऊ या 'कुछ' जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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