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________________ 80 सोया मन जग जाए था ही नहीं। अनाम था। नाम तो जन्म के एक-दो सप्ताह बाद दिया जाता है। नाम-संस्कार की रश्म अदा की जाती है। उस समय मेरा नाम प्रदीप रखा गया था।' उससे पहले वह क्या था, उसे कोई पता नहीं। किन्तु नाम का परिग्रह हो गया और अब वह उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं। वह उससे चिपट गया कि मैं प्रदीप हूं। प्रदीप उसकी पहचान बन गई। नाम सुनते ही वह आ जाता है, चला जाता है, भोजन करता है, विश्राम करता है। नाम का उसने परिग्रह बना लिया। वह उसको पकड़े हुए है। ___'अहं' के साथ नाम जुड़ा, कुछ जुड़ा और व्यक्ति बदल गया। ‘अंह' के साथ संबंध जुड़ा और व्यक्ति बदल गया। उपाधियां जुड़ी, अमीरी और गरीबी जुड़ी विद्या और सत्ता जुड़ी और 'अंह' विषैला बन गया। ___ जब तक 'अहं' अहं में रहता है, अपनी सीमा में रहता है तब तक वह हमारे अस्तित्व को प्रकट करता है। पर जैसे ही वह 'कुछ' के साथ जुड़ता है वैसे ही वह अस्तित्व से हटकर और कुछ प्रकट करने लग जाता है। .. आकांक्षा और क्षमता ये दो बातें हैं। सामाजिक संदर्भ में व्यक्ति के मन में यह आकांक्षा जागी कि मैं कुछ बनूं। यह कोई बहुत बुरी बात नहीं है। आकांक्षा के आधार पर ही सामाजिक विकास होता है। पर उस आकांक्षा की परिपूर्णता में लम्बी प्रक्रिया से गुजरना होता है। आकांक्षा के साथ क्षमता का विकास भी आवश्यक होता है। व्यक्ति बड़ी-बड़ी आकांक्षाएं या कल्पनाएं कर लेता है, पर यदि क्षमताएं नहीं हैं तो वह असफल रहता है। वही आकांक्षा सफल होती है, जिसके साथ क्षमता से असंतुलित आकांक्षा कभी पूरी नहीं हो सकती और उसका परिणाम होता है कुंठा, निराशा, अवसाद और क्रोध ।। __आदमी ने बड़ी आकांक्षा बना ली कि मुझे बूढ़ा नहीं होना है, सदा युवक बने रहना है, स्वस्थ रहना है, मरना नहीं है, राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बनना है आदि-आदि। किन्तु क्षमताओं के अभाव में वह अपनी आकांक्षा कभी पूर्ण नहीं कर सकता। वाइस चांसलर बनने की आकांक्षा रखने वाला यदि वर्णमाला से भी परिचित न हो, 'क' 'ख' पढ़ना भी न जाने, तो वह आकांक्षा आकाशकुसुम की भांति निरर्थक और काल्पनिक होगी। ऐसी आकांक्षाएं सामाजिक संदर्भ में बुरी न भी मानी जाएं, पर उनका परिणाम सुखद नहीं होता, कल्याणकारी नहीं होता। कोई भी व्यक्ति आकांक्षा संजो सकता है. उसको अधिकार है, वह स्वतन्त्र है पर उसकी पूर्ति क्षमता पर निर्भर करती है। इसलिए आकांक्षा और क्षमता दोनों साथ-साथ चलती हैं तब सुखद परिणाम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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