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________________ १०. युद्ध : अहंकार के साथ जीवन का यह रथ कैसे चल रहा है? इसे कौन चला रहा है? इसके पीछे प्रेरणा क्या है? ___हमारी सारी प्रवृत्तियां प्रेरणा से प्रेरित होती हैं। मनोविज्ञान के पुरस्कर्ताओं ने तीन प्रेरक-प्रवृत्तियां मानी हैं शारीरिक प्रेरणा, सामाजिक प्रेरणा और अंहकार संबंधी प्रेरणा। मनुष्य इनसे प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है। अंहकार की प्रेरणा भी मनुष्य को अनेक कार्यों में संलग्न करती है। 'अहं' शब्द भारतीय दर्शन का महत्त्वपूर्ण शब्द है। 'अहं' के बिना किसी की पहचान नहीं होती। पूछा जाए, तुम कौन हो? उत्तर मिलेगा मैं हूं। यहां कौन है?' 'मैं हं'। 'कौन बोल रहा है?' "मैं बोल रहा हूं।' 'मैं हूं' का अर्थ है कि मेरा अस्तित्व है। अपने अस्तित्व को अभिव्यक्ति देने के लिए एक शब्द का चुनाव किया गया और वह शब्द है 'अंह।' अस्तित्व छिपा रहता है। वह 'अंह' के द्वारा अभिव्यक्त होता है। दर्शन और अध्यात्म का महत्त्वपूर्ण शब्द है—अहं। आचारांग सूत्र का आरम्भ होता है—'कोऽहं' मैं कौन हूं, इस प्रश्न से और उसका समाधान सूत्र है-सोऽहं'मैं वह हूं। 'अहं' के साथ इसका समाधान होता है। आदि में भी 'अहं' और अन्त में भी 'अहं'। साधना के क्षेत्र में भी इस 'अहं' की परम उपयोगिता है। जिसमें 'अहं', 'अहं' मैं हूं, मैं हूं कि निरन्तर स्मृति बनी रहती है उसमें सतत आत्म-जागृति रहती है। अहं का विस्तार है अहंकार। पर वह कुछ और बन गया। 'मैं हूं' यहां तक निर्दोष है यह शब्द । पर जब इसके साथ कुछ जुड़ा, अहंकार बना और वह दोष में भर गया। 'मैं हूं' यह निर्दोष अभिव्यक्ति है पर मैं कुछ हूं' यह 'कुछ' शब्द जुड़ा और अहं का रूप बदल गया। 'मैं हूं'यहां तक वह अपरिग्रही था, निर्दोष था। जहां अपरिग्रह होता है वहां संपूर्ण निर्दोषता होती है। 'मैं कुछ हूं' जब 'कुछ' का परिग्रह जुड़ा तो अहंकार निर्दोष से सदोष बन गया। भावना जागी, मैं कुछ हूं, मेरा समाज में स्थान है। अहंकार की संदोष अवस्था है। __हम कर्मशास्त्रीय और अध्यात्म की दृष्टि से सोचें तो ज्ञात होगा कि 'अहं' की उत्पत्ति लोभ और आकांक्षा के द्वारा होती है। आकांक्षा और लोभ अहंकार को जन्म देते हैं। जैसे-जैसे लोभ जागता है, वैसे-वैसे अहंकार भी बढ़ता जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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