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________________ 68 सोया मन जग जाए मिलना दुर्लभ है। युद्ध का अवसर प्राप्त होना दुर्लभ है। जो सौभाग्यशाली होता है, उसे मिलता है युद्ध का अवसर।। __ युद्ध के लिए प्रेरणा चाहिए, प्रेरक तत्त्व की अवगति चाहिए। प्राचीनकाल में युद्ध में व्यक्ति को प्रेरित करने के लिए कहा गया—जो रणभूमी में लड़ते-लड़ते मरता है, उसके लिए स्वर्ग में देवांगनाएं तैयार मिलती हैं। जो युद्ध में जीतता है उसे वैभव प्राप्त होता है। युद्ध में दोनों हाथों में लड्डू हैं। यह शरीर तो क्षणभंगुर है। एक न एक दिन तो यह अवश्य ही नष्ट होगा, मरेगा, फिर युद्ध में मरने की कैसी चिन्ता! __ महावीर ने भी कहा युद्ध का अवसर दुलर्भ है। बार-बार नहीं मिलता। यह अनुभूति प्रत्येक शिविरार्थी को होनी चाहिए, तभी वह इस रणभूमी में विजयी हो सकता है। युद्ध का मोर्चा है प्रेक्षाध्यान का शिविर। ध्यान की साधना है आत्मना युद्धस्व। जब अपने आप से लड़ने की बात प्राप्त होती है तब अन्यान्य दूसरी बातें गौण हो जाती हैं और केवल लड़ने की बात ही सामने रहती है। शीत से लड़ना है, धूप से लड़ना है, असुविधाओं और प्रतिकूलताओं से लड़ना है। जो ऐसा करता है वही आत्मना युद्धस्व को फलित करता है। ऐसा मौका बड़ा दुर्लभ है। सुविध वादी होना दुर्लभ नहीं है, किन्तु असुविधाओं में विचलित न होना बड़ा दुर्लभ है। हमारी सारी लड़ाई है स्वयं पर नियन्त्रण पाने के लिए, अपने आपको नियंत्रित रखने के लिए। ध्यान का अभ्यास व्यक्ति इसीलिए करता है कि वह अचेतनात्मक वृत्तियों पर अपना नियंत्रण रख सके। वृत्तियां उभरती हैं, कष्ट देती हैं और मन पर अपना प्रभुत्व जमा लेती हैं। इन वृत्तियों पर नियंत्रण पाना ही ध्यान का उद्देश्य है। दोहरे व्यक्तित्व में एक प्रकार का हमारा व्यक्तित्व विकसित है। अब दूसरे प्रकार के व्यक्तित्व को विकसित करना है। जहां आत्मा का अज्ञान है वहां आत्मा के ज्ञान को विकसित करना है। जहां विषय है वहां निर्विषय को विकसित करना है। जहां कषाय है, वहां अकषाय को विकसित करना है। जहां प्रमाद है, वहां अप्रमाद को जागृत करना है। एक व्यक्तित्व है इच्छा चालित और दूसरा व्यक्तित्व है स्वचालित। स्वचालित व्यक्तित्व पर नियंत्रण पाना है और इच्छाचालित व्यक्तित्व को विकसित करना है। यह ध्यान साधना के द्वारा संभव है। __ अध्यात्म की सबसे महत्त्वपूर्ण खोज है—अन्तर्यात्रा, भीतर झांकना, भीतर में यात्रा करना। भीतर प्रवेश कैसे करें? शरीर के भीतर जाने के कुछेक द्वार हैं। एक रास्ता खुला है मुंह का, एक है नाक का, एक है आँख का और एक है कान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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