________________
दृष्टि बदलें : सृष्टि बदलेगी .. दृष्टिकोण के बदलने में निमित्तों का भी योग होता है। प्रज्ञाप्रदीप का वातावरण व्यक्ति को उस दिशा में प्रस्थित करता है और जो प्रस्थित हैं, उन्हें आगे बढ़ने में सहयोग देता है। पुरुषार्थ और अभ्यास के साथ-साथ सहयोग, प्रेरणा और अशीर्वाद भी वांछनीय है। यदि दृष्टिकोण बदलने वाला उपयुक्त व्यक्ति नहीं मिलता है तो दृष्टिकोण उलझ जाता है। आदमी इस उलझे हुए दृष्टिकोण के कारण ही तो इतने कष्ट भोग रहा है। ___ यथार्थ में देखा जाए तो आदमी जितना दुःख भोगता है, उतना दु:ख दुनिया में है नहीं। हम मानते तो हैं कि दुनिया में प्रचुर दुःख हैं, पर उतने दु:ख हैं नहीं। हम स्वयं दु:खों को जन्म देते हैं और भोगते हैं। आदमी को भी दु:ख भोगने की आदत बन गई, उसमें लोभ हो गया दु:ख भोगने का। इस आदत के कारण वह प्रतिदिन नए-नए दु:खों की सृष्टि करता रहता है। दु:खों की यह सृष्टि, दृष्टिकोण के विपर्यय के कारण हुई है। दृष्टि के बदलते ही सृष्टि बदल जाती है। राग विराग में और आसक्ति अनासक्ति में बदल सकती है। दृष्टि-परिवर्तन में निमित्त भी बहुत कारगर होता है___ राजकुमारी मल्ली के साथ विवाह करने के लिए पांच राजा उत्कंठित हुए। मल्लीकुमारी के पिता के पास पांचों का प्रस्ताव आया। राजा असमंजस में पड़ गया। पांचों विशाल राज्यों के अधिपति थे। उन्हें नकारना भी विपत्ति मोल लेना था। किसको हां कहे और किसको ना कहे। समस्या आ गई।
मल्लीकुमारी ने सुना। उसने पिताश्री से कहा-'आप चिन्ता न करें। स्वयंवर तय कर आप सबको यहां बुला लें। स्थिति अपने आप सुलझ जाएगी। पिता ने वैसा ही किया। ___ मल्लीकुमारी ने उसके पहुंचने के पूर्व ही एक सुनियोजित व्यवस्था कर दी थी। उसने अपने मान-उन्मान की एक सुन्दर प्रतिमा बनवाई। वह साक्षात् मल्लीकुमारी ही लगती थी। _ पांचों राजा आए। सबको उस पुतली मल्लीकुमारी के पास ले जाया गया। दूर से उसका रूप-रंग देखकर सब आश्चर्यचकित रह गए। उसके साथ विवाह की उत्कंठा और तीव्र हो गई। वे राजा पुतली के निकट पहुंचे। अचानक उसका ढक्कन खुला और भीतर से दुर्गन्ध आने लगी। सबने अपने-अपने नाक ढक लिए। वे बोले कहां ले आए हमें ? अधिकारी ने कहा—आप जिस मल्लीकुमारी को चाहते हैं, वह यही है। अन्न की पुतली है मल्लीकुमारी। जो अन्न खाया जाता है, वह सड़ान पैदा करता ही है। इसको भी अन्न दिया गया। यह सड़ान उसी अन्न की है। सबकी आंखें खुल गई और मल्लीकुमारी के प्रति जो आसक्ति थी, वह दूर हो गई।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org