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________________ क्या ध्यान उपाय है दुःख मिटाने का ? 43 घटना होती है पर दुःख नहीं होता । घटना और दुःख -- इन दोनों के बीच में सेतु है मिथ्यादृष्टिकोण और अज्ञान । ये बदलते हैं तो घटना —–दुःख नहीं देती । पर प्रश्न है, क्या ऐसा सम्भव है ? इस संभावना पर जब हम विचार करते हैं, तब हमें ध्यान के एक विशेष प्रयोग — अन्तर्यात्रा पर केन्द्रित होना पड़ता है। अन्तर्यात्रा का प्रयोग इस दुःख की स्थिति को बदल देता है । दुःख का एक मुख्य हेतु है— बहिर्मुखता । द:ख चाहे किसी भी प्रकार का हो, उसमें यह हेतु होता है । दो स्थितियां हैं। एक है अन्तर्मुखता की स्थिति और दूसरी है बहिर्मुखता की स्थिति । बहिर्मुखता में दुःख पैदा होता है, क्योंकि व्यक्ति का दृष्टिकोण यथार्थ नहीं होता । बहिर्मुखता अयथार्थता है । इसमें दुःख अवश्यंभावी है । अन्तर्मुखता में दुःख का संवेदन नहीं होता । कल्पना, अभाव, वियोग और प्रतिकूलता — इन सबकी स्थितियों में अन्तर्मुखी व्यक्ति में दुःख होना असंभव बन जाता है । दुःख होता ही नहीं । अन्तर्यात्रा बहिर्मुखी व्यक्ति को अन्तर्मुखी बनाती है । अन्तर्यात्रा के दो छोर हैं। एक है ज्ञानकेन्द्र और दूसरा है शक्तिकेन्द्र । मेरुदंड का निचला सिरा और मेरुदंड का ऊपर का सिरा । इन दोनों के बीच जो कुछ है, वह रहस्यपूर्ण है । उत्तरीध्रुव है हमारे मस्तिष्क का ज्ञानकेन्द्र और दक्षिणी ध्रुव है मेरुदंड का निचला सिरा शक्तिकेन्द्र । दक्षिणीध्रुव का प्राण-प्रवाह जब उत्तरीध्रुव तक जाता है, शक्तिकेन्द्र से ज्ञानकेन्द्र तक जाता है तब व्यक्ति अन्तर्मुखी बनने की ओर अग्रसर होता है । इस स्थिति में सारा दृष्टिकोण बदलता है, धारणा और मान्यता बदलती है । प्राण या विद्युत् का ऊर्ध्वारोहण अन्तर्मुखता लाता है, भीतर का द्वार खुलता है और तब दुःख संवेदन की स्थिति समाप्त-सी हो जाती है । निष्कर्ष की भाषा में कहा जा सकता है कि अन्तर्मुखी अवस्था में चारों प्रकार के दुःख कल्पनाजनित, अभावजनित, वियोगजनित और परिस्थिति-जनित — नष्ट हो जाते हैं। उनका संवेदन रुक जाता है, मिट जाता है । मानसिकता बदल जाती है । इस चर्चा के आधार पर यह स्पष्ट अवबोध होता है कि दुःख का होना या न होना घटना से उतना संबंधित नहीं है जितना हमारे दृष्टिकोण से सम्बन्धित है। दृष्टिकोण के बदलने पर सब कुछ बदल जाता है। 1 गुरु बैठे थे। पास में एक शिष्य था । एक अजनबी व्यक्ति आया और गालियां बकने लगा। वह बहुत देर तक गालियां देता रहा, अंटसंट बोलता रहा। इतने समय तक शिष्य शांत था, पर उसका आवेग बढ़ा और वह भी गालियां देने लगा। गाली के प्रति गाली चल पड़ी। इतने में ही गुरु उठकर जाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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