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________________ 42 सोया मन जग जाए मरने की पृष्ठभूमी बनाने में लग जाए। तपस्या करे, स्वाध्याय-ध्यान में तथा धर्म-जागरिका में अधिक से अधिक समय लगाए। सांसारिक क्रिया-कलापों से स्वयं को हटाए और अध्यात्म में तन्मय हो जाए। जब यह पृष्ठभूमी तैयार हो जाए तब वह अनशन कर समाधिपूर्वक मृत्यु का वरण करे। यह आराधना और संलेखना या अनशन की पद्धति वियोग में होने वाले दुःख के निवारण की पद्धति है। प्राणों का वियोग हो सकता है, पर दु:ख नहीं हो सकता। न दूसरों के प्राणों के वियोग से दु:ख होगा और न स्वयं के प्राणों के वियोग से दु:ख होगा। दु:ख की उत्पत्ति का सारा आधार ही बदल जाता है। इस चर्चा के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि ध्यान के माध्यम से, अनुप्रेक्षा के माध्यम से दुःख को मिटाया जा सकता है। कुछ व्यक्ति कहते हैं, ध्यान से कल्पनाजनित दु:ख मिट सकता है, पर अभावजनित दु:ख कैसे मिटेगा? रोटी का अभाव है। भूख लगी है। ध्यान से भूख नहीं मिटेगी। रोटी खाने से ही भूख मिट सकेगी। हम पुन: इस भ्रान्ति का निरसन करें कि अभाव दुःख पैदा नहीं करता। दु:ख उत्पन्न होता है मिथ्या मान्यताओं से। कल्पना, वियोग या अभाव उसी व्यक्ति पर आक्रमण करते हैं, दु:खी बनाते हैं, जो मिथ्या दृष्टिकोण को पालता है। जिस व्यक्ति ने अनित्य अनुप्रेक्षा का अभ्यास किया है, उसे वियोग में दु:ख नहीं होगा। 'सर्वं अनित्यं' यह इसका सूत्र है। 'संयोगा विप्रयोगान्ता:'–संयोग है वहां वियोग है यह तथ्य जब पूर्णत: हृदयंगम हो जाता है तब वियोग दु:खदायी नहीं बनता। ४. परिस्थितिजनित दुःख प्रतिकूल परिस्थिति में आदमी दु:खी हो जाता है। यह स्वाभाविक बात है। आदमी अनुकूलता चाहता है। कोई भी प्राणी प्रतिकूलता नहीं चाहता। क्या प्रतिकूलता और दु:ख-दानों पर्यायवाची हैं? क्या दोनों में इतना गहरा सम्बन्ध है कि जहां प्रतिकूलता होगी वहां दुःख होगा ही? यह सचाई नहीं है। प्रतिकूलता हो सकती है, पर दु:ख होना अनिवार्य नहीं है। अनुकूलता और प्रतिकूलता-ये दोनों हमारी मान्यता पर निर्भर हैं। हमने एक स्थिति को अनुकूल और दूसरी को प्रतिकूल मान लिया और प्रतिकूल के साथ दु:ख के संवेदन को जोड़ दिया। यदि यह धारणा बदलती है तो प्रतिकूल परिस्थिति में भी आदमी सुखी रह सकता है। ___ ध्यान की दो निष्पत्तियां है—दृष्टिकोण बदलता है, अज्ञान मिटता है। सभी दु:ख मिथ्या दृष्टिकोण और अज्ञान से उत्पन्न होते हैं। दोनों के बदल जाने पर दु:ख नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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