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________________ क्या ध्यान उपाय है दुःख मिटाने का ? 41 नहीं हो सकता। दुःख होना अनिवार्य नहीं है । यह सचाई जब ज्ञात हो जाती है तब यह स्पष्ट समझ में आ जाता है कि ध्यान दुःख को मिटाने का उपाय है। उसके द्वारा कल्पनाजनित, अभावजनित और वियोगजनित दुःख मिटाया जा सकता है। अनेक लोग प्राणों के वियोग से घबराते हैं । वे मौत का नाम सुनते ही कांप उठते हैं। यह दुःख सबसे बड़ा दुःख है । इसमें दूसरे के वियोग का प्रश्न नहीं है । प्रश्न है अपने ही प्राणों के वियोग का । वह प्राणों को निरन्तर बनाए रखना चाहता है । वह सोचता है, जो प्राणों का संयोग हुआ है, वह बना रहे। वह प्रतिपल जागरूक रहता है, सावधान रहता है कि कहीं वियोग हो न जाए। ऐसे लोग निरन्तर दु:ख भोगते हैं । ऐसे भी लोग हैं, जिनमें यथार्थ का अवबोध है । उनमें मौत का भय समाप्त हो जाता है। वे दुःखमुक्त हो जाते हैं । जैन परम्परा में आराधना का सूत्रपात हुआ। जिसने इस विधि को अपनाया, उसका दु:खभार हल्का हो गया । आचार्यों ने ग्रन्थ का निर्माण किया और उसका नाम रखा, 'मृत्यु- महोत्सव' । मृत्यु भी एक महोत्सव है, यह धारणा बनी आराधना की विधि से। अरे, मरने से डरते क्यों हो? यह तो एक महोत्सव है। कब-कब मौका मिलता है ? जीने का मौका तो वर्षों तक मिला, पर मरने का मौका तो एक ही बार प्राप्त होगा । केवल एक बार । जीने का काल कितना लंबा है ! और मरने का काल केवल एक क्षण । कितना छोटा कालमान! इससे छोटा कुछ और होता नहीं । दोनों की तुलना करें। अस्सी वर्ष तक जीए। अस्सी वसंत पार किए। पर मरने में तो दूसरा वसंत आता नहीं । दो बार कोई मरता नहीं । यदि मरने का समय भी इतना ही दीर्घ होता तो एक बड़ी बात होती । पर वह बहुत लघु है । इतने लम्बे समय तक जीने वाला भी यदि एक क्षण भर मरने से घबराए, बड़ी विचित्र बात है । आराधना के द्वारा मानसिकता बदलती है, चैतसिक अवस्था बदलती है और तब मृत्यु का दुःख नहीं होता, प्रत्युत् मृत्यु के स्वागत की तैयारियां होने लगती हैं। जैन परम्परा में अनशन या संथारे की मान्यता प्रचलित है। यह मरने की तैयारी का उपक्रम है। इसके लिए बारह वर्षों का कालमान उल्लिखित है । जीने की तैयारी सब सीखाते हैं, पर जैन परम्परा की यह संलेखना विधि मृत्यु की कला सिखाती है। मरना भी एक कला है, जीने से भी मूल्यवान् कला । जब व्यक्ति को यह अनुभव होने लगे कि शरीर एक अवस्था को पार कर गया है, इन्द्रियां शिथिल हो चुकी हैं। अब जीवन परायत्त हो रहा है, तब व्यक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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