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सोया मन जग जाए
पत्नी घर पर थी। उसने देखा। दोनों को उठाया और अपने शयनकक्ष में ले जाकर, एक पलंग पर सुला, ऊपर से सफेद चादर ओढ़ा दी। घर को साफ-सुथरा कर, भोजन पकाया। काम पूरा कर दिया। इतने में पाठशाला से रविमेहर घर पहुंचे। पत्नी से पूछा-बच्चे कहां हैं ? वह बोली कहीं खेल रहे होंगे। कुछ समय बीता। रविमेहर ने फिर पूछा तो फिर वही उत्तर। कुछ समय और बीता। बच्चे नहीं आए। कहां से आते ? रविमेहर आशंका से घिर गए। पुन: पत्नी से पूछा। पत्नी उन्हें शयनकक्ष में ले गई। चादर उतार कर बोली—'ये रहे बच्चे।' 'अरे! ये शांत और निश्चेष्ट कैसे?' पत्नी बोली—आप जो प्रतिदिन कहते आ रहे हैं, वही हुआ। जिसने इनमें प्राण-संचार किया था, उसी ने इनका प्राण-संहरण कर लिया। रविमेहर ने सुना। स्तब्ध रह गए। पर शान्त। कोई विशेष पीड़ा या क्लेश नहीं। 'जिसने जीवन दिया था, उसी ने ले लिया।' यह कहते-कहते दोनों शयनकक्ष से बाहर निकले और जो औपदैहिक क्रियाएं करनी थीं, वे की।
यदि वियोग से दु:ख होता है तो सबको होना चाहिए। रविमेहर की दम्पत्ति को वियोग तो सहना पड़ा, पर वे दुःखी नहीं हुए। प्रश्न होता है, क्यों?
कुछ वर्ष पूर्व की घटना है। सुगनचन्दजी आंचलिया हमारे समाज के विशिष्ट कार्यकर्ता और अध्यात्म से ओतप्रोत व्यक्ति थे। अकस्मात् वे काल-कवलित हो गए। उनकी धर्मपत्नी मनोहरी देवी भी अत्यन्त अध्यात्म परायण महिला थी। विरक्त और धर्मप्रवण। पति की मृत्यु की बात सुनकर वह अवाक् रह गई। अपने आपको संभाला। सामायिक और धर्म-जागरण करने बैठ गई।
यह असाधारण-सी स्थिति लग सकती है, पर असंभव नहीं है। कुछ मूढ़ व्यक्तियों ने कहा—पति के प्रति स्नेह नहीं है, अन्यथा रोती-चिल्लाती। कुछ ने कहा ढोंग है यह सारा। आपस में अनबन थी। सोचती है, अच्छा हुआ, पिंड छूटा। अनेक लोग, अनेक बातें। पर मनोहरी देवी पूर्ण जागरूक, स्वस्थ और ६ गर्म-जागरिका में तल्लीन ।
ये कल्पित घटनाएं नहीं वास्तविक हैं। वियोग हुआ है, पर दु:ख नहीं है। हम दोनों को अलग-अलग करें, वियोग हो सकता है, दु:ख नहीं होता। वियोग का निश्चित परिणाम नहीं है दु:ख होना। वियोग होना एक बात है और दु:ख होना दूसरी बात है। वियोग होने पर हमारी जो गलत मान्यताएं उभरती हैं, वे हमें दु:खी करती हैं। अभाव में भी ये गलत धारणाएं ही दु:ख को उत्तेजित करती हैं। यदि ये मिथ्या मान्यताएं न हों तो अभाव हो सकता है, वियोग हो सकता है, दुःख
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