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________________ 39 क्या ध्यान उपाय है दु:ख मिटाने का ? यह धारणा स्पष्ट हो जाती है कि अभाव और दुःख का गठबन्धन नहीं है, दोनों भिन्न-भिन्न हैं तो स्थिति बदल जाती है । फिर अभाव के होने पर भी दुःख नहीं होता । ३. वियोगजनित दु:ख यह संयोग और वियोग का संसार है । इस संसार में कोई जुड़ता है तो कोई बिछुड़ता है । दो व्यक्ति मिले, गाढ़ मैत्री और प्रेम हो गया। नया बच्चा पैदा हुआ। प्रगाढ़ स्नेह और सम्बन्ध जुड़ गया । प्रकृति का नियम है संयोग नैरन्तर्य नहीं होता। वह सदा बना रहे, ऐसा नहीं होता। उसके साथ वियोग जुड़ा रहता है। पति बैठा रहता है । पत्नी का वियोग हो जाता है । पत्नी बैठी रहती है । पति चला जाता । यह संयोग-वियोग का चक्र निरन्तर घूमता रहता है। अभी शिविर में एक महिला आई है जिसके पति का वियोग हुए चार वर्ष हुए हैं। उसने कहा—मैं पति के वियोगजनित दुःख को भुलाना चाहती हूं पर भुला नहीं पा रही हूं। मन में कसक है, वेदना है, दुःख है । मैं वेदना के इस भार को सहती हुई कब तक जीऊंगी? क्या मेरे लिए मर जाना श्रेय नहीं है? वह कहती ही जा रही थी। मैंने देखा, दुःख स्वयं मूर्तिमान् बनकर उसके सामने उपस्थित है। बहिन की आंखों में आंसू और शरीर में प्रकंपन है । इतना गहरा दुःख ! मैंने सोचा, क्या इस दुःख को मिटाने का कोई उपाय है? या तो पति को इसके पास फिर से उपस्थित कर दिया जाए, या फिर इसे उसके पास भेज दिया जाए। दोनों असंभव बातें हैं। अपने कर्तृत्व से परे की बातें हैं। इस स्थिति में कैसे मानें कि वियोगजनित दुःख को मिटाया जा सकता है? यदि न मानें तो भी समस्या है। प्रश्न होता है, क्या ध्यान के द्वारा इसे मिटाया जा सकता है ? क्या ध्यान इतना भी नहीं कर सकता ? इस समस्या संकुल विचारणा में से प्रकाश की एक रश्मि मिली कि दुःख वियोग से उत्पन्न नहीं है, दुःख उत्पन्न हुआ है अपनी गलत मान्यताओं और धारणाओं के कारण । ऐसा कोई सिद्धान्त नहीं बनाया कि जिससे दुःख को भुलाया जा सके । रविमेहर की एक मार्मिक घटना है। वे एक बात पर बहुत बल देते और कहते — 'देखो, जिस परमात्मा ने हमें यह जीवन दिया है, वह उसे वापस ले लेता है तो हमें दुःख क्यों होना चाहिए?' उनके दो मासूम बच्चे थे । अत्यन्त सुन्दर और कमनीय । उनको मेहर बहुत प्यार करते थे । कुछ क्षणों तक नहीं देखते तो उदास हो जाते थे । एक बार वे पढ़ाने के लिए पाठशाला गए हुए थे। गांव में महामारी फैली हुई थी। दोनों बच्चे महामारी के चपेट में आए और काल - कवलित हो गए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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