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सोया मन जग जाए
से पैदल चला । दार्शनिक की कुटिका में पहुंचा। यूआनसीन उस अमीर का स्वागत करने सामने आया। फटा-सा कुर्ता, पत्तियों की टोपी और छोटा-सा मकान। देखते ही वह अमीर बोला- 'आप तो अभाव का जीवन जी रहे हैं। गरीब हैं। बहुत दु:खी हैं।' दार्शनिक ने गंभीर स्वर में कहा—— सीकुंग ! सोच-समझकर बोलो। गरीब अवश्य हूं पर दुःखी नहीं हूं । दु:खी वह होता है जो अज्ञान में जीता है। मैं अज्ञान में नहीं जी रहा हूं ।'
एक भेदरेखा स्पष्ट सामने आ गई कि दुःख अलग बात है और गरीबी अलग बात है। गरीब होने का अर्थ दुःखी होना नहीं है । दुःखी वह होता है जो अज्ञान का जीवन जीता है। अज्ञानी अपने आसपास अंधकार का जाल बिछा देता है । वह ऐसी मान्यताएं और धारणाएं बना लेता है कि पग-पग पर उसे दुःख भोगना पड़ता है । अनेक व्यक्ति अभावग्रस्त होते हुए भी सुख का जीवन जीते हैं और अनेक व्यक्ति भाव में जीते हुए भी दु:खी हैं । इसलिए यह स्पष्ट है कि दुःख अलग है और अभाव अलग है । अभाव से दुःख होता तो इस दुनिया में सबसे ज्यादा दुःखी होते साधु-संन्यासी । उनके पास अभाव ही अभाव है। उनका अपना कुछ भी नहीं है । न मकान, न कपड़ा और न रोटी । कुछ खोजा जाता है, कुछ मांगा जाता है और कुछ लाया जाता है । पास में कुछ भी नहीं । चारों ओर अभाव ही अभाव ।
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अभाव से नहीं अज्ञान से दुःख होता है । अभाव के कारण गरीबी हो सकती है, रिक्तता हो सकती है, कमी हो सकती है किन्तु दुःख होना अनिवार्य नहीं है । अभाव के साथ दुःख की व्याप्ति नहीं है, नियम नहीं है। जहां-जहां अभाव होगा, वहां-वहां दुःख होगा यह व्याप्ति नहीं बनती। जहां-जहां अभाव होगा, वहां-वहां गरीबी होगी — यह तर्कशास्त्रीय नियम बन सकता है । पर अभाव के साथ दुःख व्याप्ति नहीं बनती। अभाव और अज्ञान—दोनों मिलकर दुःख पैदा करते हैं ।
भारत में आकिंचन्य की परम्परा रही है। बड़े-बड़े सम्राट् संन्यासी बने हैं। उन्होंने सारी संपदा को ठुकरा कर अभाव का जीवन, संन्यासी का जीवन स्वीकार किया है। उस जीवन में उन्हें सबसे अधिक सुख और आनन्द का अनुभव हुआ है। यदि अभाव दुःख का कारण होता तो मुनि बनने, संन्यास ग्रहण करने की परम्परा ही गलत हो जाती । आकिंचन्य स्वीकार करने वालों ने आनन्द का जीवन न जीया हो, यह नहीं है । इस दृष्टि से ध्यान को अभावजनित दुःख को मिटाने वाला भी कहा जा सकता है । जब ध्यान जीवन में उतरता है तब अज्ञान मिटता है, यथार्थ का स्पष्ट भान होता है। जैसे ही
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