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सोया मन जग जाए
वास्तविकता की दिशा। आदमी उलझन में पड़ जाता है। वह न व्यवहार को छोड़ सकता है और न वास्तविकता को छोड़ सकता है। एक समस्या है।
उद्रायण सिन्धु-सौवीर का राजा था। उसकी धारणा थी, जो राजा होता है वह नरक में जाता है। इसी धारणा के आधार पर उसने अपने पुत्र अभिजितकुमार का हितचिंतन कर, अपने भानजे केशी कुमार को अपना उत्तराधिकारी बनाकर स्वयं प्रव्रजित हो गया। उसने पुत्र की हितचिंता की, पर व्यवहार का अतिक्रमण हुआ। उसका यह अधिकार नहीं था कि वह पुत्र को अपने राज्याधिकार से वंचित रखता। केशी राजा बन गया। एक बार अभिजितकुमार के मन में यह विचार आया कि मेरे पिता उद्रायण ने मुझे राज्यभार न सौंप कर, मेरे साथ अन्याय किया है। इस मनोमानसिक दुःख से वह अभिभूत होकर अपने पिता उद्रायण के प्रति अत्यन्त स्पष्ट हो गया। उसके मन में वैर भाव बढ़ता गया। आगे चलकर वह श्रमणोपासक भी बना। पर पिता से क्षमायाचना न करने और क्षमा न देने से वह मरकर नरक में गया।
ऐसा क्यों हुआ? यह व्यवहार के अतिक्रमण का फलित है। व्यवहार की भी अपनी सचाइयां हैं और निश्चय या वास्तविकता की भी अपनी सचाइयां हैं। दोनों का अवबोध अपेक्षित है। निश्चय की सचाई है कि जितनी मूर्छा उतना दु:ख । पर व्यवहार ही यह सचाई है कि मूर्छा को एकदम छोड़ा नहीं जा सकता। इस संस्कार-चक्र को एक ही प्रहार से तोड़ा नहीं जा सकता। आदमी दोनों समस्याओं से सूझ रहा है। एक ओर है निश्चय की समस्या और दूसरी ओर है व्यवहार की समस्या। एक ओर है निश्चय की समस्या और दूसरी ओर है व्यवहार की समस्या। एक है भीतर की समस्या और एक है बाहर की समस्या। कैसे सुलझाएं इन समस्याओं को? मूर्छा सुलझाने नहीं देती।।
दो बाधाएं हैं—आवरण और मूर्छा। आवरण ज्ञान को रोकता है। ज्ञान में बाधा उपस्थित करता है। पर जानते हुए भी हम सही निर्णय नहीं ले पाते, यह आवरण का काम नहीं है, यह है मूर्छा का काम। आवरण से भी अधिक खरतनाक है मूर्छा, मोह की सघनता। अंधा देख नहीं पाता, क्योंकि आंख नहीं है। पर आंख होते हुए भी जो देख नहीं पाता, देखता हुआ भी जो नहीं देखता वह है मूर्छा। ___ मूर्छा पर चोट करना आवश्यक है। हम मूर्छा को कम करने की दिशा में चलें। यह बहुत लंबी यात्रा है। इस यात्रा में हम अतीत को देखें, वर्तमान को देखें और भविष्य के लंबे जीवन को भी देखें। ध्यान का हम सहारा लें। यह इस लंबे जीवन का पाथेय बनेगा, इस आस्था को दृढ़ करते चलें।
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