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________________ 34 सोया मन जग जाए छुटकारा पाया जा सकता है। व्यान प्राण पर अनेक प्रकार के मैल जमे हुए हैं। जैसे ही हम इस प्राण पर एकाग्र होते हैं, वे मैल एक-एक कर घुलते चले जाते शरीर-प्रेक्षा की बात बहुत साधारण-सी लगती है और इसका महत्त्व न जानने वाले तत्काल कह देते हैं, क्या देखना है शरीर को? है क्या इसमें? ये शब्द अनुत्साह पैदा करते हैं। हमारी आस्था टूटती है। प्रयोग सफल नहीं होता। सबसे पहला काम है कि हम अस्था बनाए रखें और जो प्रयोग करें उन्हें निष्ठा और श्रद्धा के साथ संपादित करें। अन्यथा निरुत्साह का वातावरण पैदा करने वाले अनेक व्यक्ति सामने आ जायेंगे। महाभारत के युद्ध में कर्ण ने चाहा कि शल्य उनका सारथी बने। व्यवस्था हो गई। कर्ण सारथी बन गया। कृष्ण ने सोचा, अब कर्ण-दुर्जेय बन गया है। कर्ण स्वयं शक्तिशाली है और उसे वैसा ही शक्ति-संपन्न सारथी मिल गया। अब उसे कौन हरा सकेगा? अर्जुन के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो गई। कृष्ण ने सोचा। शल्य से कहा, तुम कर्ण के सारथी बने रहो, पर एक काम करना कि जब भी कर्ण बाण छोड़े तब उसे टोकते रहना। कहना कि क्या कर रहे हो? बाण चलाना आता ही नहीं। यह कमी है, वह कमी है। देखो, अर्जुन कितना निपुण धनुर्धर है। कैसे बाण चलाता है। शल्य ने स्वीकृति दे दी। युद्धस्थल में दोनों ओर से युद्ध प्रारम्भ हुआ और शल्य कर्ण के बाणों की कमियां बताने लगा। सुनते-सुनते निपुण धनुर्धर कर्ण निरुत्साहित हो गया, हीन-भावना से ग्रस्त हो गया और उसकी अस्सी प्रतिशत शक्ति चुक गई। ध्यान में निरुत्साह पैदा करने वाले अनेक शल्य हैं। वहां तो वह एक ही शल्य था, पर यहां अनेक हैं। पर साधक को आस्था बनाए रखनी है। आस्था तब बनती है जब भीतरी सम्पदा का ज्ञान हमें होता है। हमारी भीतरी सम्पदा है ज्ञान-शक्ति और आनन्द। इसका अवबोध होते ही बाह्य सम्पदा की मूर्छा कम होने लग जाती है। पर उस आन्तरिक सम्पदा का अवबोध नहीं है, इसीलिए बाह्य सम्पदा की मूर्छा सघन होती जा रही है। अध्यात्म साधना का पहला उद्देश्य है कि वह व्यक्ति को भीतरी सम्पदा का अवबोध कराए। ध्यान, कायोत्सर्ग आदि उसी के लिए हैं। हम निरन्तर बाहर की यात्रा करते हैं, परिक्रम करते हैं, पर भीतर की यात्रा करके देखें तो सही कि वहां क्या है? वहां वह सम्पदा है जो बाहर है ही नहीं। जब उस सम्पदा का मूल्यांकन होगा तब मूर्छा पर चोट होगी, बाह्य परिग्रह पर चोट होगी। जब तक भीतर प्रवेश नहीं होता, यथार्थ का ज्ञान नहीं होता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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