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सोया मन जग जाए
केवल शारीरिक सहनशक्ति ही नहीं, आदमी का मन भी कमजोर हो गया है। उसकी भी सहनशक्ति कम हो गई है। कठोर जीवन और श्रम का जीवन जीना अच्छा होता है। पर उसे भुला दिया गया। इन सुविधाओं ने आदमी में स्वार्थ और क्रूरता का भाव भी उजागर किया है। आदमी सारी सुविधायें स्वयं भोगना चाहता है। दूसरों के प्रति उसका वैसा भाव नहीं है।
महात्मा गांधी इलाहाबाद गए। आनन्द भवन में ठहरे। प्रात:काल हाथ-मुंह धो रहे थे। पास में जवाहरलाल नेहरू बैठे थे। बातचीत चल रही थी। गांधीजी के लोटे का पानी समाप्त हो गया। वे बोले..ओह! बात ही बात में पानी पूरा हो गया और अभी कुल्ला करना शेष है। नेहरू ने कहा बापू! क्या कह रहे हैं! पानी पूरा हो गया तो आप जितना चाहेंगे उतना और आ जाएगा। यह गंगा-यमुना का नगर है। यहां पानी की कमी कैसी? बापू बोले-जवाहर! तुम ठीक कहते हो कि यह नगर गंगा-यमुना का है। किन्तु इन पर अकेले बापू का अधिकार नहीं है। लाखों-करोड़ों लोगों का इन पर अधिकार है। मै फिजूल पानी खर्च करूं, यह अनुचित है।
ऐसी भावना तब बनती है जब दृष्टिकोण सुविधावादी नहीं होता। कल ही मैं एक कोटेज से गुजर रहा था। मैंने देखा कि टंकी से पानी फिजूल नीचे गिर रहा है। इतना पानी कि दस-बीस व्यक्ति स्नान कर लें। पर उस ओर किसी का ध्यान नहीं था, क्योंकि पानी का अभाव नहीं है, प्रचुरता है। यह नहीं सोचा जाता कि दुनिया में मैं अकेला ही नहीं हूं, लाखों और हैं, जिनको पानी की उतनी ही आवश्यकता है, जितनी मुझको है। सुविधावादी दृष्टिकोण में स्वार्थ की बात अधिक सोची जाती है, परार्थ की बात पर कम ध्यान दिया जाता है। ___ आज अपेक्षा है कि चिंतन बदले, चिंतन की धारा बदले। सब यह सोचें कि दुनिया में बहुत प्राणी हैं। मैं अकेला ही हकदार नहीं हूं। सबका हिस्सा है उसमें। भारत के ऋषियों ने इस बारे में बहुत महत्त्वपूर्ण चिन्तन दिया था, पर वे व्यवस्था नहीं दे पाए। मार्क्स ने चिन्तन के साथ-साथ व्यवस्था दी। ऋषियों ने कहा—'जितने से पेट भरे उतने मात्र पर व्यक्ति का अधिकार है। इतनी सम्पत्ति पर ही उसका हक है। शेष सारा अनधिकृत है। शेष सम्पत्ति समाज की है। जो इससे अधिक रखता है वह चोर है, वध्य है।
कितना विशाल दृष्टिकोण! सम्पत्ति पर किसी का व्यक्तिगत स्वामित्व नहीं हो सकता। सम्पत्ति सामाजिक है। कोई व्यक्ति उस पर अधिकार कर बैठता है तो यह अनुचित है, अन्याय है। इस विशाल दृष्टिकोण को आदमी ने मान्य नहीं
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