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________________ क्या विचारों को रोका जा सकता है ? 23 प्रवचन सुनता है, शास्त्रों का पारायण करता है, तप-जप करता है, पर कोई बात मन पर असर नहीं करती। असर करे कैसे? उसमें वह टिकती ही नहीं, क्योंकि मन छेदों से भरा पड़ा है। सर्वत्र छेद ही छेद हैं। चलनी में पानी टिक नहीं सकता। ___ मन को निश्छिद्र बनाना होगा। यह होगा भावशुद्धि के द्वारा। भावशुद्धि के लिए कायोत्सर्ग का प्रयोग महत्त्वपूर्ण है। कायोत्सर्ग का अर्थ है, शरीर का उत्सर्ग कर देना, शरीर को छोड़ देना। जीते जी शरीर को कैसे छोड़ा जा सकता है? मरने के बाद शरीर स्वयं छूट जाता है, पर जीवित अवस्था में उसे छोड़ देने की बात कैसे संभव है? अनासक्त योग और निष्काम कर्म यही है कि जीते जी शरीर को छोड़ देना। यानी शरीर का होना और शरीर को छोड़ देना, काम का होना और काम को छोड़ देना। यही है अनासक्त योग। शरीर को छोड़ देने का अर्थ है उसकी सार-संभाल छोड़ देना, परिकर्म छोड़ देना। __ शरीर को छोड़ने का अर्थ है परिग्रह की जड़ पर प्रहार करना। शरीर सबसे बड़ा परिग्रह है। दूसरे सारे परिग्रह इस शरीर के ममत्व से पैदा होते हैं। शरीर महान् परिग्रह है और दूसरा है परिग्रह की भावना को पैदा करने वाला परिग्रह। यदि शरीर के प्रति ममत्व ढीला होता है तो परिग्रह की भावना शिथिल हो जाती है। कायोत्सर्ग है शिथिलीकरण। मांसपेशियों और प्रत्येक कोशिका को शिथिल करना। चमड़े और हड्डियों की पकड़ को पकड़ने वाली पकड़ को ढीला छोड़ना है। ममत्व भाव को ढीला करना है। स्मरण रखें कि कायोत्सर्ग में केवल शरीर के अवयवों का ही शिथिलीकरण नहीं करना है, ममत्व भावना को भी शिथिल करना है। केवल मांसपेशियों को शिथिल करना यांत्रिक क्रिया है। वास्तव में 'शरीर मेरा है'—इस भावना को शिथिल करना है। यही अनासक्त योग है। भावशुद्धि और भाव-परिवर्तन का पहला प्रयोग है कायोत्सर्ग। यहां से भाव-परिवर्तन प्रारम्भ होता है। जिसने कायोत्सर्ग करना नहीं सीखा, उसने भाव-परिवर्तन करना नहीं सीखा। जिसने कायोत्सर्ग करना सीख लिया, उसने भाव-परिवर्तन करना सीख लिया। कायोत्सर्ग में तीन बातें साथ-साथ चलती हैं शरीर का शिथिलीकरण, जागरूकता और ममत्व का विसर्जन। एक व्यक्ति ने पूछा, हठयोग के शवासन में और कायोत्सर्ग में क्या अन्तर है? मैंने कहा शारीरिक दृष्टि से कोई अन्तर नहीं है। शवासन में केवल शरीर का शिथिलीकरण होता है। कायोत्सर्ग में केवल शिथिलीकरण नहीं होता, साथ-साथ में अपने प्रति जागरूकता रखनी होती है और ममत्व का त्याग भी होता है। इस दृष्टि से दोनों में बहुत बड़ा अन्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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