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________________ 238 सोया मन जग जाए किन्त एक योगी के लिए उससे आगे बढ़कर प्राण के परमाणु तक पहंचना है। श्वास के साथ केवल गैसें ही भीतर नहीं जाती, प्राणवायु भी भीतर जाता है। जितनी गहरी सांस होगी, प्राण का आकर्षण भी उतना ही गहरा होगा। उसके साथ यदि हमारा संकल्प जुड़ता है तो आकर्षण और अधिक तीव्र होता है। जो व्यक्ति प्राणवान् नहीं बनता, उसका जीना सार्थक नहीं होता। जीवन सब जीते हैं। किन्तु एक प्राणवान् बनकर जीता है और दूसरा निष्प्राण। दोनों के जीने में आकाश-पाताल का अन्तर है। प्राणवान् व्यक्ति इस प्रकार जीता है कि दूसरों को भी पता चलता है कि कोई जी रहा है। निष्प्राण व्यक्ति जीता हुआ भी मरा हुआ-सा जीता है। कोई नहीं जानता उसको। उसका जीना व्यर्थ-सा जीना है। ___ एक धनाढ्य व्यक्ति था। वह अत्यन्त कृपण था। वह देना नहीं, लेना मात्र जानता था। एक दिन मौत ने उसे उठा लिया। पत्नी रोने लगी। वह बोली यह कैसे हुआ? मेरा पति इतना कंजूस था और ऐसा निष्प्राण जीवन जी रहा था कि पड़ोसी को भी उसके अस्तित्व का पता नहीं था। आश्चर्य होता है कि मौत ने उसे कैसे ढूंढ लिया? __ अनेक लोग ऐसा ही जीवन जीते हैं। उसके अस्तित्व का पता ही नहीं चलता। अस्तित्व-ज्ञापन के लिए अन्यान्य साधनों की आवश्यकता नहीं है। बस, वह प्राणवान् हो। पता लग जाएगा कि यहां कोई जी रहा है, कोई सांस ले रहा है। प्राणवान् व्यक्ति को ही इस दुनिया में जीने का अधिकार है। __ हम समस्याओं पर विचार करें। एक विद्यार्थी परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता है और आत्महत्या कर लेता है। इसका मुख्य कारण है कि वह कष्ट सहना नहीं चाहता या कष्ट सहने में सक्षम नहीं है। अनुत्तीर्ण होना भी एक कष्ट है। महावीर ने इसे अज्ञान परीसह या प्रज्ञा परीसह कहा है। यह भी एक कष्ट है। बुद्धि कम होती है, स्मृति कमजोर होती है, यह कष्ट देती है। आदमी विचलित हो जाता है, अधृति का शिकार होता है और प्राणान्त करने के लिए उद्यत हो जाता है। ___ शारीरिक कष्टों से भी आलोचना और प्रतिकूलता के कष्टों को सहना बहुत कठिन होता है। इसमें धृति चाहिए, पूरा सामर्थ्य चाहिए। यदि कोई व्यक्ति राजा को यह कह दे कि राजा यह काम नहीं कर सकता तो वह आग-आग हो जाता है। डाक्टर कब मानता है कि वह रोग को नहीं मिटा सकता? वकील कब स्वीकार करता है कि वह अपने वादी को नहीं जिता सकता? अपनी आलोचना या असामर्थ्य सुनने की इनमें धृति नहीं होती। इन पर परमात्मा भी हंसता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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