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________________ क्या ध्यान जरूरी है? 227 चिन्तन नहीं होता, वह आदमी बनकर भी पशु की तुलना में चला जाता है। चिन्तन-शून्य आदमी गधा कहलाता है। ____ एक व्यंग्य है। एक गधा मकान की दीवार के पास खड़ा था। दूसरे गधे ने पूछा-'अरे! आगे चलो, यहां क्यों खड़े हो?' उसने कहा—'हमारे और भाई भीतर बैठे हैं। उनको साथ लेकर जाऊंगा।' उसने पूछा-मकान के भीतर गधा कैसे? तब कहा, कान लगाकर सुनो। उसने सुना। भीतर में दो भाई परस्पर लड़ रहे थे। एक कह रहा था—तू गधा है।' दूसरा कहता—तू गधे का बच्चा है।' उस गधे ने कहा -गधे को और गधे के बच्चे को छोड़कर आगे कैसे सरकू ? - जब आदमी विचार या चिन्तनशून्य होता है, तब वह गधा बन जाता है। गधे का अर्थ केवल गधा प्राणी ही नहीं है। जिसमें समझ कम है, चिंतन कम है, वे सब गधे हैं। गधा प्रतीक बन गया ना-समझी का। ध्यान का एक अर्थ चिन्तन है। पर केवल चिंतन ही होता तो ध्यान-शिविरों में कौन आता? चिंतन की पद्धतियों को वैज्ञानिक ढंग से सिखाने वाले संस्थान हैं-विद्यालय, विश्वविद्यालय। विद्या की एक शाखा है थिंकिंग। उसका बहुत विकास हुआ है। इस चिन्तन को सीखने कौन आता प्रेक्षाध्यान शिविर में? चिन्तन इस धारा का एक बिंदु है। उसका अग्रिम चरण है—अचिंतन, चिन्तन न करना। तीन बाते हैं। पहली है चिन्तन करने की क्षमता का होना। दूसरी है चिन्तन की क्षमता का न होना। तीसरी है चिन्तन की क्षमता होने पर भी अचिन्तन की स्थिति में रहना। इसका नाम है ध्यान, ध्यान की अग्रिम अवस्था। __ प्रश्न होता है कि जब चिन्तन से हामरी जीवन-यात्रा सुगमता से चल जाती है, तब अचिंतन के प्रपंच में क्यों फंसा जाए? चिंतन चंचलता को बढ़ाता है। वह चक्र इतना तीव्र हो जाता है कि विचार बन्द ही नहीं होता। परेशानी बढ़ती है, इसलिए विचारों को विराम देना जरूरी होता है। हमारी लिपी में अर्द्ध विराम, पूर्ण-विराम का विकास हुआ। विराम नहीं होता तो पढ़ने वाला कुछ भी नहीं समझ पाता। सारा एकाकार हो जाता। विराम है, इसलिए इस भाषा को समझ सकते हैं। बोलने में भी विराम होता है। अन्यथा बात कोई समझ में नहीं आ पाती। पर आश्चर्य है कि हमारे चिन्तन में कोई विराम नहीं है। यह चिंतन इसीलिए दुश्चिन्तन बन गया है। विराम का चिन्तन चिन्तन है। अविराम का चिन्तन चिन्तन नहीं होता। मनुष्य में आसक्ति की तीव्रता, मूर्छा आदि का कारण है चंचलता। इस चंचलता ने आसक्ति और मूर्छा को इतना तीव्र कर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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