SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३१. क्या ध्यान जरूरी है? मनुष्य के विकास के दो महत्वपूर्ण साधन हैं—ज्ञान और ध्यान। शेष सभी प्राणियों से मनुष्य की अतिरिक्तता इन दो के द्वारा होती है। मनुष्य ने ज्ञान का विकास किया है और बाद में ध्यान का विकास किया है। उसकी ये दो अतिरिक्त शक्तियां हैं। वास्तव में ज्ञान और ध्यान दो नहीं, एक ही हैं। ज्ञान का नाम ही ध्यान है और जहां ध्यान है वहां ज्ञान है। अगर ध्यान है और ज्ञान नहीं है तो वह शून्यता है, मूर्खता है। वहां ज्ञान जरूरी है। यह तो हो सकता है कि कभी-कभी ज्ञान है पर ध्यान नहीं है। जहां ज्ञान होता है, वहां चंचलता होती है। वह ज्ञान पर अधिकार कर लेती है। वहां केवल ज्ञान रहता है, ध्यान नहीं होता। जहां ज्ञान चंचलता से मुक्त होगा, वहां वह ध्यान बन जाएगा। सस्पंदनं ज्ञानम्-चंचलता ज्ञान है। निस्पंदनं ध्यानं अचंचलता ध्यान है। जहां स्पंदन है, वह ज्ञान और जहां निस्पंदता है, वह ज्ञान ध्यान है। ___ चंचलता के कारण ज्ञान समस्याएं पैदा करता है। मनुष्य में आसक्ति है, द्वेष है, क्योंकि चंचलता जुड़ी हुई है। एक बिन्दु है चंचलता और उसके आगे का बिन्दु है विक्षेप, पागलपन। दोनों में प्रकृति-भेद अधिक नहीं है। सीमा का थोड़ा अन्तर है। एक सीमा तक हम उसे चंचलता कहते हैं और उस सीमा से आगे उसे पागलपन कहा जाता है। चंचलता खतरनाक होती है। आदमी कर्मयोगी और अनासक्त बनना चाहता है। वह चाहता है कि उसका जीवन 'जहां पोमं जले जायं, नोवलिप्पइ वारिणा' का निदर्शन हो। कमल पंक में, जल में उत्पन्न होता है, पर पंक के ऊपर रहता है, उससे लिप्त नहीं होता। वैसे ही आदमी समाज या परिवार या गृहस्थी में रहकर भी उनसे लिप्त न रहे। पर ऐसा जीवन जीना इतना सरल नहीं है। जब तक चंचलता पर नियंत्रण करने की बात प्राप्त नहीं होती, तब तक अनासक्त योग नहीं आता। चंचलता को कम कर एकाग्रता को प्राप्त करना, यह है ध्यान का विकास। इसका अर्थ है चिन्तन। ध्यान शब्द 'ध्येङ् चिंतायाम्' धातु से बनता है। इसका मूल अर्थ है चिन्तन करना। यह ध्यान का पहला सोपान है। आदमी चिन्तन करना जानता है। चिन्तन करना मानव-विकास का पुष्ट आधार है। जिसमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy