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क्या धार्मिक होना जरूरी है ?
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नकार की भाषा अच्छी नहीं होती। किन्तु मैं मानता हूं कि हमारी भाषा-प्रणाली में 'नकार' शब्द बहुत कारगर शब्द है। ‘सकार' शब्द उतना काम का नहीं है। हम इसे इस संदर्भ में समझें। ___अध्यात्म की दृष्टि से देखा जाए तो यह स्पष्ट है कि पाना कुछ भी नहीं है। जो आवृत है उसे अनावृत करना है। जो अभिव्यक्त नहीं है, उसे अभिव्यक्त करना है। आदमी जीवन की सफलता के लिए ज्ञान पाना चाहता है, किन्तु अध यात्म की गहराई में जाने पर ज्ञान पाने की जरूरत नहीं है। ज्ञान तो भीतर भरा पड़ा है। जितने भी महापुरुष हुए हैं उन्होंने ज्ञान बाहर से नहीं लिया। भीतर से ज्ञान जागा है। उसी को आज सब मानते हैं। हमारी ज्ञान चेतना, आनन्द चेतना, शक्ति चेतना ये सब भीतर हैं। बाहर से इन्हें लेने की जरूरत नहीं है। जब ये तीनों चेतनाएं जाग जाती हैं तब बाहर के साधन आकर्षण के केन्द्र नहीं रहते और तभी त्याग की चेतना जागती है। तभी हमें निषेध की भाषा का मर्म समझ में आ सकता है। त्याग है निषेध, छोड़ना। इसका तात्पर्य है, पाना कुछ भी नहीं, केवल हटाना है। जब विजातीय हट जाएगा तब यथार्थ बचेगा, शेष रहेगा। कपड़े की सफाई की भाषा, धुलाई की भाषा निषेध की भाषा है। परिमार्जन, परिष्कार और शोधन निषेध की भाषा है। स्नान निषेध की भाषा है। सब में कुछ हटाना होता है, त्यागना होता है। हटाना त्यागना निषेध है। यह निषेध का मर्म हमारे हृदयंगम हो, यह अपेक्षित है। विजातीय को हटाना है। सजातीय को लाना नहीं है। वह तो है ही। विजातीय हटेगा, वह चमक उठेगा।
हमारे पास स्वास्थ्य है, शक्ति है, आनन्द है, ज्ञान है और सुख है। ये सब हमारे पास हैं। किन्तु निषेध की भाषा समझ में न आने के कारण हम इनके लिए बाहर भटकते हैं। इन गुणों का अनुभव नहीं होता। जब निषेध की भाषा समझ में आएगी तब त्याग के माध्यम से इनका अनुभव होने लगेगा।
समाज-विकास के तीन घटक हैं -अहिंसा का विकास, संयम का विकास और सहिष्णुता का विकास। जब तक कष्ट-सहिष्णुता का विकास नहीं होता तब तक संयम का विकास नहीं हो सकता और संयम के बिना अहिंसा फलित नहीं होती। सहने की शक्ति के अभाव में आदमी पग-पग पर विचलित होता रहता है। बाहर से जो आ रहा है, उसे भी सहना है और भीतर से जो आ रहा है, उसे भी सहना है। कष्ट सहे बिना संयम नहीं टिकता।
गजसुकुमाल वासुदेव कृष्ण के छोटे भाई थे। वे भगवान् अरिष्टनेमि से प्रव्रज्या ग्रहण कर मुनि बन गए। वे उसी दिन एक रात्रि की प्रतिमा स्वीकार कर श्मशन में चले गए। ध्यानस्थ होकर अचल खड़े हुए। इतने में ही उनका श्वसुर
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