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________________ 222 सोया मन जग जाए आकांक्षा लिए जीता है। जब सहज आनन्द या सुख का स्रोत बंद कर दिया गया, तब कृत्रिम स्रोतों से कृत्रिम आनन्द की बात प्राप्त हुई। इसीलिए सुख और आनन्द के साधन के रूप में किसी ने तम्बाकू को ढूंढा, किसी ने भांग और चरस को, किसी ने अन्यान्य मादक द्रव्यों को, किसी ने और दूसरे साधनों को खोजा। तनावमुक्त होने के लिए आदमी में तड़फ जागी और उसने ये सारे पदार्थ खोज डाले। यह सब एक भूल का परिणाम है और इसीलिए आज सब सहज सुख के स्रोत से अपरिचित हो गए और कृत्रिम स्रोतों से अति परिचित हो गए। इन कृत्रिम सुख के स्रोतों ने आदमी को भटका दिया और उसमें इतनी आकांक्षा जगा दी कि उसका कहीं अन्त ही नहीं दिखाई देता। यदि हम सहज सुख और आनन्द के स्रोतों को पुन: खोल सकें, उन पर आए हुए आवरणों को हटा सकें तो फिर आनन्द और सुख की प्राप्ति के लिए कोई अन्य साधन आवश्यक नहीं होगा। साधन-निरपेक्ष सुख मिलने पर साधन-सापेक्ष सुख अकिंचित्कर हो जाता है। नमि राजर्षि दीक्षित हो रहे हैं। इन्द्र ब्राह्मण के रूप में सामने आकर बोला—'राजर्षे'! आपको प्रचुर भोग और साधन प्राप्त हैं। आप इन प्राप्त भोगों को ठुकरा कर अगले जीवन में और अधिक भोगों की प्राप्ति की आकांक्षा से दीक्षित हो रहे हैं, क्या यह मूर्खता नहीं है? जो भोग असत् हैं, काल्पनिक हैं, प्राप्त नहीं हैं, उनकी तो कामना कर रहे हैं? और जो भोग प्राप्त हैं, सामने हैं, उन्हें छोड़ रहे हैं। यह तो बुद्धिमत्तापूर्ण कार्य नहीं है।' राजर्षि बोले-भूदेव! यह किसने कहा कि मैं भोग-प्राप्ति के लिए प्रवजित हो रहा हूं? यह भ्रम है। मुझे आनन्द और सुख का वह स्रोत प्राप्त हो गया है जो सदाबहार है। उस स्रोत की प्राप्ति हो जाने पर ये कामभोग आनन्द नहीं देते। ये कामभोग शल्य हैं, विषतुल्य हैं और अतृप्ति को बढ़ाने वाले हैं। तुमने मुझे गलत समझा है। मैं काम-प्राप्ति के लिए प्रव्रजित नहीं हो रहा हूं। मैं मानता हूं कि जो कामना करता है और काम के लिए कुछ करता है, वह अकाम होकर विगति में जाता है। मुझे काम की जरूरत नहीं है। काम-मुक्ति का स्रोत मुझे प्राप्त हो गया है। सहजमुक्ति का स्रोत मिल गया है। जब सहज सुख का स्रोत मिल जाता है तब त्याग की चेतना जागती है। हमारी चेतना कृत्रिम सुख-सुविधाओं की चेतना के साथ जुड़ी हुई है, उलझी हुई है। इसलिए यह मत करो यह निषेध की भाषा समझ में नहीं आती। निषेध की भाषा के विषय में मनोविज्ञान का अभिमत भी है कि भाषा विधायक होनी चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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