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________________ क्या धार्मिक होना जरूरी है? 221 ___ जब संस्कार जागते हैं, वृत्तियां उत्तेजित होती हैं तब आदमी परवश हो जाता है। आदमी ने जितने मनोरंजन और सुख-सुविधा के साधन खोजे हैं उनकी खोज के पीछे आदमी का असंयम बोल रहा है। इन्द्रिय-स्तर पर जीने वाले समाज में इनको रोका नहीं जा सकता। पर इनके सीमातीत विकास को रोकना आवश्यक है। इनके अतिरिक्त विकास से जो विकृतियां पैदा हुई हैं, हो रही हैं, वे मानवजाति के लिए प्राणघातक सिद्ध होंगी। सबसे बड़ी हानि यह हो रही है कि सहज आनन्द और सहज सुख का जो स्रोत था वह सूख रहा है। मानव की यह सबसे बड़ी निधि लुट रही है। सुख-दुःख का स्रोत हमारे भीतर है। यह केवल अध्यात्म की ही वाणी नहीं है, आज के वैज्ञानिकों ने भी इसकी पुष्टि की है। रूस के एक वैज्ञानिक ने अपने अनुसंधान का एक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए बताया कि मनुष्य के मस्तिष्क में सुख और दुःख दोनों के स्राव होते हैं। मस्तिष्क का जो सूक्ष्म संस्थान है—रटिकूलन फारमेशन'—वहां से सुख-दु:ख के रसों का स्राव होता है। अच्छे विचार, अच्छे भाव से सुख के रस का स्राव होता है। और बुरे विचार, बुरे भाव से दु:ख के रस का स्राव होता है। पदार्थ में सुख-दु:ख नहीं है। किसी भी पदार्थ से सुख-दु:ख का संबंध नहीं है। वे मात्र निमित्त और उद्दीपक बन सकते हैं। किन्तु वे स्राव हमारे भीतर हैं। यह है विज्ञान की चर्चा। इससे आगे है अध्यात्म की चर्चा । अध्यात्म के अनुसार प्रत्येक प्राणी दो प्रकार के कर्म परमाणुओं से आश्लिष्ट है। एक है सातवेदनीय कर्म और दूसरा है असातवेदनीय कर्म। जब सातवेदनीय कर्म के परमाणु जागृत होते हैं विपाक में आते हैं तब प्राणी सुख का अनुभव करता है। उसका मन सुख से भर जाता है और जब-जब असातवेदनीय कर्म जागृत होता है, विपाक में आता है, तब-तब प्राणी का मन दुःख से भर जाता है। यह कर्मशास्त्रीय चर्चा है। इससे और गहरे में जाएं तो जब-जब शुद्ध चेतना जागती है, राग-द्वेष मुक्त चेतना जागती है, आदमी सहज सुख से भर जाता है। हमारे भीतर सहज सुख है, सहज आनन्द है। सहज का अर्थ है—पदार्थ निरपेक्ष। भीतर सहज सुख और आनन्द का अजस्र स्रोत बह रहा है। प्राणी ने उस पर न जाने कितने आवरण डाल रखे हैं। उस ज्योति को राख से ढंक दिया कि उसका कोई अनुभव ही नहीं होता। वह सहज स्रोत बंद-सा हो गया है। इसलिए प्राणी दूसरे ढंग से सुख और आनंद की बात सोचता है। यह निश्चित है कि आदमी आनन्द और सुख के बिना जी नहीं सकता। हर आदमी इनकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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