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________________ क्या विचारों को रोका जा सकता है? __ हम सब उस बच्चे की अवस्था से गुजर रहे हैं। हम भी विराट सत्य को शब्दों की और तर्कों की छोटी-सी प्याली में भरना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में कथनी और करनी में अन्तर नहीं होगा तो क्या होगा? जब तक हम शब्द और तर्क से परे भावशुद्धि के जगत् में प्रवेश नहीं करेंगे तब तक सत्य के सागर को हम भर नहीं पाएंगे। हमारा ज्ञान और विचार सीमित है। उस असीम को कैसे समा पाएंगे? हमें शब्द और तर्क की सीमा से आगे जाना होगा, तब सत्य समझ में आएगा। तब हमारे भाव निर्मल बनेंगे। जब तक भाव निर्मल नहीं होते तब तक सचाई के सामने होने पर भी वह पकड़ में नहीं आती। किसान अपने पुत्र के साथ प्रवचन सुनने गया। प्रवचनकार ने कहापरमात्मा सर्वव्यापी है, सर्वत्र है। वह सबको देखता है। प्रवचन का यह सार था। घर आकर, भोजन से निवृत्त हो पिता-पुत्र जंगल में गए। एक खेत सूना पड़ा था। घास उगा हुआ था। पिता ने पुत्र से कहा तुम यहां बैठो। मैं इस खेत से पशुओं के लिए घास ले आता हूं। कोई आए तो मुझे बता देना। ध्यान रखना कोई देख न ले। पिता खेत में घुसा। मन का पाप उसे सतर्क रहने के लिए कह रहा था। उसने तीन बार पुत्र से पूछा, कोई देख तो नहीं रहा है? पुत्र से रहा नहीं गया। वह बोला-'पिताजी! और कोई नहीं पर परमात्मा देख रहा है।' पर यह बात पिता के समझ में नहीं आई और वह चोरी से घास काटता ही रहा। पुत्र के बात हृदयंगम हो चुकी थी। जब तक भाव सहज नहीं होता, तब तक सचाई समझ में नहीं आती, वस्तु का यथार्थ बोध नहीं होता, विराग नहीं होता। शास्त्रों को पढ़ने और पारायण कर लेने पर भी हम सत्य को मानते हैं, जानते नहीं। सत्य साधना के द्वारा ही जाना जा सकता है, पकड़ा जा सकता है। मानने से सत्य पकड़ में नहीं आता, केवल शब्द पकड़ में आते हैं। मानने से सत्य का साक्षात्कार नहीं होता, जीवन से उसका सम्बन्ध नहीं जुड़ता। जब तक मानने और जानने का अन्तर स्पष्ट समझ में नहीं आएगा तब तक ज्ञान और व्यवहार की, कथनी और करनी की दूरी मिटेगी नहीं। आदमी धोखा खाता रहेगा। राग और द्वेष बाह्य जगत् में उलझा देते हैं। विचारों में हम स्वयं उलझ जाते हैं। धारणा बदल जाती है। सिपाही मारा गया। आदमखोर शेर ने उसे खा डाला। हेडक्वाटर में सूचना गई। डी०आई०जी० ने अधिकारी को बुलाकर कहा—'पता लगाओ कि क्या वास्तव में ही शेर ने सिपाही को मार डाला। क्या सिपाही उस समय वर्दी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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