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सोया मन जग जाए विचार आदमी को सुखी बनाता है तो दु:खी भी बना डालता है। आदमी सुख से बैठा है। एक विचार आया और वह दुःख से भर जाता है। कोई घटना नहीं, कोई परिस्थिति नहीं, केवल विचार आया और दुःख उभर आया। आदमी दुःख भोग रहा है, पर अचानक एक ऐसा विचार उभरा कि वह दु:ख भूल गया और सुख के झूले में झूलने लगा। विचार जहां सुख की सृष्टि करता है तो दु:ख का सर्जन भी करता है। इन सब स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह मार्ग खोजा गया कि विचार चलते हैं, चलने दें, पर कम से कम रागात्मक और द्वेषात्मक विचारों को रोका जाए। विचार रुकते नहीं, तब यह प्राप्त हुआ कि उन विचारों के पीछे भाव काम कर रहा है, उसे रोका जाए। रागात्मक और द्वेषात्मक विचारों के पीछे भाव काम करते हैं, भावों को रोकना है। हमें इस सचाई को हृदयंगम करना है कि विचार के प्रवाह को रोकने का मतलब है भावना के प्रवाह को रोकना, भावना के प्रवाह को बदलना।
राग का प्रतिपक्ष है विराग। विराग का अर्थ है, न राग और न द्वेष। इसी विराग या वैराग्य का नाम है निष्काम कर्म, अनासक्ति योग। विराग की भावना जागे, यह आवश्यक है। वैराग्य का अर्थ केवल साधु बनना नहीं है। वैराग्य का अर्थ है सचाई का बोध, यथार्थ का अवबोध। सत्य का ज्ञान, यथार्थ का अवबोध और वैराग्य ये तीनों तात्पर्यार्थ में एक हैं, अभिन्न हैं। सत्य के बोध का नाम है वैराग्य और वैराग्य का अर्थ है सत्य का बोध। दो नहीं हैं, एक ही हैं। जब हम सचाई को जान लेते हैं, जीने लगते हैं तो वह वैराग्य है। जब तक हम सचाई को केवल मानते हैं, जीते नहीं, वह वैराग्य नहीं है। आज के अधिकांश धार्मिक सचाई को मानने वाले हैं, जानने या जीने वाले नहीं हैं। जानने और मानने में आकाश-पाताल का अन्तर है। जानना है सत्य का साक्षात्कार और मानना है सत्य का आरोपण। मानने के जगत् में कथनी और करनी एक नहीं हो सकती। उसमें खाई रहेगी। यही कारण है कि आज के धार्मिक में कथनी और करनी समान नहीं हैं। वह कहता कुछ है और करता कुछ है। यह स्वाभाविक है, क्योंकि वहां इनकी एकता प्राप्त ही नहीं होती। वह सत्य का साक्षात्कार नहीं, केवल आरोपण कर चल रहा है। वह सत्य को जीता नहीं, सत्य का केवल भार ढोता है। केवल मानने का यही फलित होगा।
एक बच्चा समुद्र के किनारे उदास बैठा था। उसके हाथ में प्याली थी। वह कभी समुद्र को देखता और कभी प्याली को। एक व्यक्ति ने पूछा—बच्चे उदास क्यों बैठे हो? उसने कहा-'मैं इस समुद्र को प्याली में भरना चाहता हूं, पर कैसे भरूं नहीं जानता।'
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