________________
204
सोया मन जग जाए
न भी मनुष्य ही हो सकता है। बहुत सारे मनुष्य तो न्यूनतम ज्ञानधारा की परिधि में घूमते रहते हैं
1
मालिक ने नौकर से कहा— दही का कटोरा पड़ा है। ध्यान रखना, कौआ खा न जाए। मालिक चला गया। घंटा भर बाद आकर देखा तो कटोरा खाली मिला। नौकर से पूछा। नौकर बोला –— कौए से मैंने बचाया था, पर एक कुत्ता आया और खा गया। आपने कुत्ते से बचाने के लिए नहीं कहा था ।
मालिक ने नौकर से कहा—घी के पीपे में जो चूहा गिरा था, निकाल लिया ? नौकर बोला —–मालिक ! निकाला तो नहीं, पर मैंने एक उपाय कर डाला । मैंने पीपे में एक बिल्ली डाल दी, जो कि चूहे को खा जाएगी ।
बुद्धि और समझ में बहुत तारतम्य रहता है । करोड़ों-अरबों भेद-प्रभेद हो सकते हैं। आदि-बिन्दु और चरमम- बिन्दु के बीच के तारतम्य अनगिन हैं, असंख्य हैं, अनन्त हैं। यह तारतम्य इसी बात का सूचक है कि प्रथम बिन्दु है तो अन्तिम बिन्दु भी होगा, जहां सारा तारतम्य समाप्त हो जाता है । वह है अनावृत चेतना ।
जब अनावृत चेतना का विकास होता है तब सबसे पहले भेद समाप्त हो जाता है, प्रत्यक्ष और परोक्ष का भेद मिट जाता है। आवृत चेतना में दो भेद हैं— प्रत्यक्ष और परोक्ष । हमारे प्रत्यक्ष कम है, परोक्ष अधिक है । और जो प्रत्यक्ष है वह भी इन्द्रियों का प्रत्यक्ष है । इन्द्रियां विभ्रम पैदा करती हैं। होता कुछ और है और ज्ञात कुछ और ही होता है । चेतना के अनावृत होते ही परोक्ष समाप्त हो जाता है और सत्य प्रत्यक्ष हो जाता है । यहां सत्य का पूर्ण साक्षात्कार या आत्मा का साक्षात्कार होता है । सब कुछ प्रत्यक्ष । परोक्षता समाप्त हो जाती है । दूरी और निकट का भेद समाप्त हो जाता है । व्यवधान या अव्यव न कुछ नहीं। वहां भेद का कोई अर्थ नहीं होता । वहां सर्व व्यापिता प्राप्त हो जाती है। सर्वत्र ज्ञान ही ज्ञान । ज्ञानमय । स्थूल और सूक्ष्म, व्यवहित और अव्यवहित—ये सारे आवृत चेतना की परिधि में होने वाले भेद हैं। अनावृत चेतना के राज्य में भेद नाम की वस्तु ही नहीं है । सब कुछ एकमय, सर्वमय एकाकार, अद्वैत ।
1
ध्यान प्रारम्भ करने वाला साधक अखंड चेतना की दिशा में प्रस्थान प्रारम्भ करता है । यह पहला कदम है । यही अखंड व्यक्तित्व की दिशा में उठने वाला पहला चरण है। ध्यान के द्वारा ज्ञान और चरित्र दोनों का विकास होता है । ध यान के द्वारा जागरूकता बढ़ती है, फलत: चारित्र का विकास होता है | चारित्र का विकास होता है, मोह कम होता जाता है । दूसरे शब्दों में, चेतना पर आवरण डालने वाले तत्त्व कम होते हैं । मूर्च्छा मूल है। जब यह टूटती है तब आवरण अपने आप हटते जाते हैं । इस दृष्टि से देखें तो ध्यान बहुत मूल्यवान् है, ध्यान
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org