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________________ 203 अनावृत चेतना का विकास और इसके अनेक पेरामीटर-कसौटियां बतलाई हैं। ये सारी व्यावहारिक कसौटियां हैं। वास्तव में अखंड व्यक्तित्व वही होता है जिसकी चेतना अनावृत या वीतराग बन जाती है। वीतराग के बिना अखंडता आ नहीं पाती, चेतना टूटती रहती है। एक व्यक्ति आज अच्छा है, कल शायद वैसा न रह सके। एक व्यक्ति आज विद्वान् है, कल पक्षाघात से ग्रस्त होकर, वह किसी काम का नहीं रहा। उसका ज्ञान समाप्त हो गया। पढ़ा-लिखा है, पर स्मृति-भ्रंश के रोग से पीड़ित है। वह अपना नाम भी याद नहीं रख पाता। सारी स्मृति लुप्त हो जाती है, ज्ञान चला जाता है। ऐसा इसीलिए होता है कि खंड-चेतना है। खंड-चेतना के परिप्रेक्ष्य में हम अखण्ड चेतना की बात कैसे करें? चरित्रवान् चरित्र-भ्रष्ट हो जाता है, साधु असाधु बन जाता है और साहूकार चोर हो जाता है। ये सारे परिवर्तन खंड-चेतना के साक्षी हैं। यही है खण्डित व्यक्तित्व। अत: हम कोई भी ऐसी भेदरेखा नहीं खींच सकते जहां अखण्ड व्यक्तित्व का निर्णायक सूत्र हमें मिल जाए। चेतना का जितना-जितना आवरण हटता है, उतना-उतना व्यक्तित्व अखंडता की दिशा में बढ़ता चला जाता है। हम उसे अखंड व्यक्तित्व नहीं कह सकते। ज्ञान भी आगे बढ़ता चला जाता है और समझ भी आगे बढ़ती चली जाती है। ज्ञान और समझ में बहुत तारतम्य प्राप्त होता है। एक करोड़ व्यक्तियों का सर्वे किया जाए तो तारतम्य का अंक भी एक करोड़ आएगा। करोड़ प्रकार का ज्ञान और करोड़ प्रकार की समझ। संख्या जितनी अधिक होगी, तारतम्य की संख्या बढ़ती जाएगी। तर्कशास्त्र में एक प्रश्न उठाया गया कि हम कैसे माने कि अखंड चेतना या अनावृत चेतना है? हम कैसे माने कि सर्वज्ञता है? प्रमाण क्या है? तर्कशास्त्रियों ने यही तर्क प्रस्तुत किया कि ज्ञान का तारतम्य बता रहा है कि एक बिन्दु ऐसा भी है जहां ज्ञान पूर्ण होता है, दूसरे सारे ज्ञान या तारतम्य समाप्त हो जाते हैं। वह अन्तिम बिन्दु है केवलज्ञान, संपूर्णज्ञान । वही अखंड ज्ञान है, अनावृत ज्ञान है। वहां कोई तारतम्य नहीं है। ज्ञान का आदि बिन्दु है स्थावर जीवनिकाय का एक इन्द्रिय का ज्ञान। यह पहला बिंदु है। वह आगे क्रमश: विकसित होता हुआ चला जाता है। वहां कोई तारतम्य नहीं है। ज्ञान का आदि बिन्दु है स्थावर जीवनिकाय का एक इन्द्रिय का ज्ञान । यह पहला बिंदु है। वह आगे क्रमश: विकसित प्राणी है। पर कुछेक मनुष्य ऐसे होते हैं, जिनमें ज्ञान का न्यूनतम विकास एकेन्द्रिय प्राणी जैसा विकास, और न्यूनतम समझ होती है। उनमें तारतम्य बहुत है। ज्ञान का आदि-बिन्दु भी वहां मिलता है तो चरम-बिन्दु का ६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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