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________________ 192 सोया मन जग जाए नहीं मिला तो वह अप्रसन्न या दु:खी हो जाता है। उस द्वन्द्व के साथ सुख-दु:ख का अनुबंध हो गया। लाभ में सुख, अलाभ में दु:ख । बहुत सारा सुख-दुःख इसके साथ बंध गया। अनेक व्यक्ति या प्राय: सभी व्यक्ति अलाभ की स्थिति में भयंकर वेदना का अनुभव करते हैं। अलाभ में मानसिक स्थिति अधोगामी हो जाती है। व्यापार में घाटा लगा, व्यापारी आत्महत्या कर डालता है। परीक्षा में अनुत्तीर्ण हुआ, विद्यार्थी आत्महत्या करने या घर से पलायन करने की बात सोच लेता है। पदावनति हुई और बड़ा अफसर भी व्याकुल होकर प्राण-त्याग के लिए तत्पर हो जाता है। आत्महत्या है जानबूझकर मरना। आदमी यह मृत्यु इसलिए करता है कि उसने अपने मन को लाभ और अलाभ से जोड़ रखा है। कभी-कभी लाभ में भी वह मर जाता है। अति लाभ होने पर व्यक्ति उस खुशी को सहन नहीं कर पाता, और मर जाता है। हमारे मन की स्थिति इस द्वन्द्व के साथ ऐसी जुड़ी हुई है कि उसने चित्त की विषमता का निर्माण कर दिया है। चित्त की विषमता मूल व्याधि | है। यह जितनी सताती है। उतनी न आर्थिक विषमता सताती है और न सामाजिक विषमता सताती है। विषमता आदमी में उथल-पुथल ला देती है। यह सबसे अधिक खतरनाक है। हमने एक ऐसी मानसिक स्थिति का निर्माण कर रखा है कि सुख की स्थिति आने पर हम फूल जाते हैं और दुःख की स्थिति में मुरझा जाते हैं। इसका तात्पर्य हुआ कि व्यक्ति की चेतना का कोई स्वतंत्र अस्तित्व ही नहीं है। सुख के साथ अहं की ग्रन्थि और दु:ख के साथ हीनता की ग्रन्थि जुड़ जाती है। दु:खी आदमी हीनभावना से ग्रस्त होता है और इतना ग्रस्त कि वह निराशा का जीवन जीने लगता है। वह सोचता है, यह संसार मेरे जीने योग्य नहीं है। जीवन में मेरा कोई अस्तित्व ही नहीं है। सारा जीवन बेकार है। सुख के साथ अहं की ग्रन्थि घुलती है और तब आदमी स्वयं को सम्राट मानकर जीता है। यह अहं भावना उसमें अनेक कुंठाएं पैदा करती है और तब वह जीवन में टूट जाता है। एक द्वन्द्व है, जोड़ा है, जीवन और मरण का। आदमी जीवन को बहुत मूल्य देता है और मरने को बहुत खतरनाक मानता है। वह मरने से डरता है और जीने के प्रति लगाव रखता है। उसने अपने मन को इस द्वन्द्व के साथ जोड़ रखा है, इसलिए ऐसी स्थिति का अनुभव करता है। मरना-जीना एक नियति है, घटना है। अनुभवी साधकों ने लिखा कि शरीर को बदलना कोई विशेष घटना नहीं है। जन्म जैसे महोत्सव है, वैस ही मृत्यु भी एक महोत्सव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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