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________________ समता की चेतना का विकास 193 'मृत्यु महोत्सव' नाम का ग्रन्थ भी उपलब्ध है। गीता कहती है— जैसे आदमी पुराने या जीर्ण कपड़े को उतार कर नया कपड़ा पहनता है वैसे ही है यह मरण । इससे डरने की क्या बात है। बड़े-बड़े आचार्यों ने इस बात को समझाया है। अनेक ग्रन्थ इस बात को सप्रमाण प्रस्तुत करते हैं । आदमी ने यह अनेक बार सुना है, पढ़ा है, फिर भी वह जीवन से मोह करता है। आदमी ने यह अनेक बार सुना है, पढ़ा है, फिर भी वह जीवन से मोह करता है और मरने से घबराता है। वह मरने से इसलिए घबराता है, डरता है कि उसके चित्त की विषमता की यह निष्पत्ति है । जब तक चित्त की विषमता रहेगी, तब तक व्यक्ति ... में यही होता रहेगा । निंदा होती है, आदमी घबरा जाता है, दुःखी बन जाता है। प्रशंसा में दो शब्द सुनता है, फूल जाता है, बेभान हो जाता है। तब उसे बोलने का पूरा विवेक नहीं रहता । वह अंहकार में आ जाता है । चुनाव का दौर था। उम्मीदवार गांव-गांव में जाकर जनता को अपनी बात समझा रहा था। एक गांव में चुनाव सभा हुई। भाषण हुआ । जनता ने कहा— हम आपको जिताना चाहते हैं, पर एक शर्त है कि गांव में अच्छा श्मशानघाट नहीं है । आप मंत्री बनेंगे, तब आपके लिए कुछ भी करना कठिन नहीं होगा।' उम्मीदवार प्रशंसा सुनकर फूल गया । वह बेभान होकर बोला'यह तो छोटी-सी समस्या है। गांव में ही नहीं, मैं घर -घर में श्मशानघाट कर दूंगा ।' निंदा में दु:खी होना और प्रशंसा में फूलना —- यह चित्त की विषमता के कारण होता है । निंदा और प्रशंसा - यह द्वन्द्व है, युगल है 1 एक द्वन्द्व है—मान और अपमान । सम्मान मिलता है तब आदमी अनेक शर्तें स्वीकार कर लेता है । अपमान होता है तब प्रतिशोध की भावना से भर जाता है दु:खी हो जाता है। जब तक वह अपमान का बदला नहीं ले लेता, तब तक उसे चैन नहीं मिलता। जीवन भर वह जलता रहता है । इस प्रकार अनेक द्वन्द्व हैं, जिनकी परिक्रमा कर रहा है आदमी। ये सारे द्वन्द्व चित्त की स्थिति को विषम बनाए हुए हैं। समता नहीं है । न लाभ में समता है और न अलाभ में समता है । न निंदा और अपमान में समता है और न प्रशंसा और सम्मान में समता है । चित्त विषम बना हुआ है । चित्त की इस विषमता का नाम ही है संसार । यह द्वन्द्वों की दुनिया है । हम उस दूसरे संसार की बात करते हैं जो अद्वन्द्वों का संसार है, अध्यात्म का संसार है । एक है व्यवहार का संसार और एक है निश्चय का संसार । एक है आभास का संसार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003112
Book TitleSoya Man Jag Jaye
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2003
Total Pages250
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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